महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 39-58

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चत्वरिंशदधिकत्रिशततम (340) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वरिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 39-58 का हिन्दी अनुवाद

‘भगवन् ! पितामह ! आप महान् प्रभावशाली हैं। आपने ही हम लोगों की सृष्टि की है। हममें से जिसको जिस अधिकार या कार्य में प्रवृत्त होना हे तथा आपके द्वारा जिस अर्थसाधक अणिकार का निर्देश किया गया है, उसका पालन अहंकारयुक्त कर्ता के द्वारा कैसे हो सकता है ? ‘उस अधिकार और प्रयोजन का चिन्तन करने वाला जो पुरुष है, उसे आप कर्तव्यपालन की शक्ति प्रदान कीजिये।’ उनके ऐसा कहने पर महान् देव ब्रह्माजी ने उन देवताओं से इस प्रकार कहा।

ब्रह्माजी बोले - देवताओं ! तुमने मुझे अच्छी बात सुझायी है। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे हृदय में जो चिन्ता उत्पन्न हुई है, वही मेरे हृदय में भी पैदा हुई है।। किस प्रकार तीनों लोकों के अधिकृत कार्य का सम्पादन किया जाय तथा किस तरह तुम्हारी और मेरी शक्ति का भी क्षय न हो। हम सब लोग यहाँ से अव्यक्त लोकसाक्षी महापुरुष नारायणदेव की शरण में चलें। वे हमारे लिये हित की बात बतायेंगे। तदनन्तर वे सब ऋषि और देवता सम्पूर्ण जगत् के हित की भावना लेकर ब्रह्माजी के साथ क्षीरसागर के उत्तर तट पर गये। वहाँ ब्रह्माजी के कथनानुसार उन सबने वेदोक्त रीति से तपस्या आरम्भ की। उनका वह महान् नियम सभी तपस्याओं में कठोर था। उनकी आँखें ऊपर की ओर लगी थीं, भुजाएँ भी ऊपर की ओर ही उठी थीं। मन एकाग्र था। वे सब-के-सब समाहितचित्त हो एक पैर से खड़े हो काष्ठ के समान जान पड़ते थे। एक हजार दिव्य वर्षों तक अत्यन्त कठोर तपस्या करने के पश्चात् उन्हें वेद और वेदांगों से विभूषित मधुर वाणी सुनायी दी।

श्रीभगवान बोले - हे तपसया के धनी ब्रह्म आदि देवताओं तथा ऋषियों ! मैं स्वागत के द्वारा तुम सबका सत्कार करके तुम्हें यह उत्तम वचन सुनाता हूँ। तुम्हारा प्रसोजन क्या है ? यह मुझे ज्ञात हो गया है। वह सम्पूर्ण जगत् के लिये अत्यन्त हितकर है। तुम्हें प्रवृत्तियुक्त धर्म का पालन करना चाहिये। वह तुम्हारे प्राणों का पोषक तथा शक्ति का संवर्द्धन करने वाला होगा। महान् धैर्यशाली देवताओं ! तुम लोगों ने मेरी आराधना की इच्छा से बड़ी भारी तपस्या की है। उस तपस्या के उत्तम फल का तुम अवश्य उपभोग करोगे। ये सम्पूर्ण जगत् के महान् गुरु लोकपितामह ब्रह्मा और तुम सभी श्रेष्ठ देवगण एकाग्रचित्त हो यज्ञों द्वारा मेरा यजन करो। लोकेश्वर ! तुम सब लोग यज्ञों में सदा मेरे लिये भाग समर्पित करते रहो। ऐसा होने पर में तुम्हें तुम्हारे अधिकार के अनुसार कल्याण मार्ग का उपदेश करता रहूँगा।

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! देवाधिदेव भगवान नारायण का यह वचन सुनकर उन सबके रोम हर्ष से खिल उठे। तदनन्तर उन सब देवताओं, महर्षियों और ब्रह्माजी ने वेदोक्त विधि से वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ में ब्रह्माजी ने स्वयं भगवान के लिये भाग निश्चित किया। उसी प्रकार देवताओं और देवर्षियों ने भी अपना-अपना भाग भगवान के लिये निश्चित किया। सत्ययुग के न्यायानुसार निश्चित किये हुए वे उत्तम यज्ञ-भाग सबके द्वारा अत्यन्त सत्कृत हुए। ऋषि कहते हैं कि ‘भगवान नारायण सूर्य के समान तेजस्वी, अन्तर्यामी पुरुष, अज्ञानान्धकार से परे, सर्वव्यापी, सर्वगामी, ईश्वर, वरदाता और सर्वसमर्थ हैं’। यज्ञभाग निश्चित हो जाने पर उन वरदायक देवता महेश्वर नारायणदेव ने आकाया में बिना शरीर के ही स्थित हो वहाँ खड़े हुए उन समस्त देवताओं से यह बात कही-।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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