महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-5

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-5 का हिन्दी अनुवाद

यज्ञ और दान करता रहता है, धैर्य रखता है, अपनी स्‍त्री से संतुष्‍ट रहता है, शास्‍त्र के अनुसार चलता है, तत्‍व को जानता है और प्रजा की भलाई के कार्य में संलग्‍न रहता है तथा ब्राह्मणों की इच्‍छा पूर्ण करता है, पोष्‍य वर्ग के पालन में तत्‍पर रहता है, प्रतिज्ञा को सत्‍य करके दिखाता है, सदा पवित्र रहता है एवं लोभ और दम्‍भ को त्‍याग देता है, उस क्षत्रिय को भी देवताओं द्वारा सेवित उत्‍तम गति की प्राप्‍ति होती है। जो वैश्‍य कृषि और गोपानल में लगा रहता है, धर्म का अनुसंधान किया करता है, दान, धर्म और ब्राह्मणों की सेवा में संलग्‍न रहता है तथा सत्‍यप्रतिज्ञ, नित्‍य पवित्र, लोभ और दम्‍भ से रहित, सरल, अपनी ही स्‍त्री से प्रेम रखने वाला और हिंसा – द्रोह से दूर रहने वाला है, जो कभी भी वैश्‍य धर्म का त्‍याग नहीं करता और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा में लगा रहता है, वह अप्‍सराओं से सम्‍मानित होकर स्‍वर्ग लोक में गमन करता है। शुद्रों में से जो सदा तीनों वर्णों की सेवा करता और विशेषत: ब्राह्मणों की सेवा में दास की भांति खड़ा रहता है ; जो बिना मांगे ही दान देता है, सत्‍य और शौच का पालन करता है, गुरु और देवताओं की पूजा में प्रेम रखता है, पर स्‍त्री के संसर्ग से दूर रहता है, दूसरों को कष्‍ट न पहुंचाकर अपने कुटुम्‍ब का पालन करता है और सब जीवों को अभय – दान कर देता है, उस शूद्र को भी स्‍वर्ग की प्राप्‍ति होती है। इस प्रकार धर्म से बढ़कर दूसरा कोई साधन नही है । वही निष्‍काम भाव से आचरण करने पर संसार – बन्‍धन से मुक्‍ति दिलाता है । धर्म से बढ़कर पाप – नाश का और कोई उपाय नहीं है। इसलिये इस दुर्लभ मनुष्‍य - जीवन को पाकर सदा धर्म का पालन करते रहना चाहिये । धर्मानुरागी पुरुषों के लिये संसार में कोई वस्‍तु दुर्लभ नहीं है। नरेश्‍वर ! ब्रह्माजी ने इस जगत् में जिस वर्ण के लिये जैसे धर्म का विधान किया है, वह वैसे ही धर्म का भली भांति आचरण करके अपने पापों को नष्‍ट कर सकता है ।। मनुष्‍य को जातिगत कर्म हो, उसका किसी को त्‍याग नहीं करना चाहिये । वही उसके लिये धर्म होता है और उसी का निष्‍काम भाव से आचरण करने पर मनुष्‍य को सिद्धि ( मुक्‍ति ) प्राप्‍त हो जाती है। अपना धर्म गुण रहित होने पर भी पाप को नष्‍ट करता है । इसी प्रकार यदि मनुष्‍य के पाप की वृद्धि होती है तो वह उसके धर्म को क्षीण कर डालता है । युधिष्‍ठिर ने पूछा – भगवन् ! देवदेवेश्‍वर ! शुभ और अशुभ की वृद्धि और ह्रास क्रम से किस प्रकार होते हैं, इसे सुनने की मेरी बड़ी उत्‍कण्‍ठा है। श्रीभगवान् ने कहा – राजन् ! तुमने जो धर्म का तत्‍व पूछा है, वह सूक्ष्‍म, सनातन, अत्‍यन्‍त दुर्विज्ञेय और नित्‍य है, बड़े – बड़े लोग भी उसमें मग्‍न हो जाते हैं, वह सब तुम सुनो। जिस प्रकार थोड़े – से ठंडे जल को बहुत गरम जल में मिला दिया जाता है तो वह तत्‍क्षण गरम हो जाता है और उसका ठंडापन नष्‍ट हो जाता है। जब थोड़ा सा गरम जल बहुत शीतल जल में मिला दिया जाता है, तब वह सब – का – सब शीतल हो जाता है और उसकी उष्‍णता नष्‍ट हो जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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