महाभारत वन पर्व अध्याय 257 श्लोक 21-28
सप्तपच्चाशदधिकद्विशततम (257) अध्याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )
इधर महाधनुर्धर पाण्डव इनके वाक्यसे प्रेरित हो उसी विषयका चिन्तन करते हुए कभी चैन नहीं पाते थे । महाराज ! फिर उन्होंने गुप्तचरोंद्वारा वह समाचार भी प्राप्त कर लिया, जिसमें अर्जुनके वधके लिये सूतपुत्र कर्णकी प्रतिज्ञा दुहरायी गयी थी । राजन् यह सब सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर उद्विग्र हो उठे । वे विचारने लगे,- ‘कर्णका कवच अभेद्य है और उसका पराक्रम भी अद्भुत है ।’ यह मानकर तथा वनके क्लेशोंका स्मरण करके उन्हें शान्ति नहीं प्राप्त होती थी । इस प्रकार चिन्तासे घिरे हुए महात्मा युधिष्ठिरके मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘अनेक प्रकारके सर्पो तथा मृगोंसे भरे हुए इस द्वैतवनको छोड़कर हम कहीं अन्यत्र चले चलें’ । इधर राजा दुर्योधन भी अपने वीर भाइयोंके साथ रहकर भीष्म,द्रोण, कृपाचार्य युद्धमें शोभापाने वाले सूतपुत्र कर्ण तथा द्यूतकुशल शकुनिसे मिलकर निरन्तर प्रसन्त्रता का अनुभव करता हुआ इस पृथ्वीका शासन करने लगा । दुर्योधन सदा अपने अधीन रहने वाले राजाओंका प्रिय करने लगा और प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञोंद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका भी स्वागत-सत्कार करता रहा ।
राजन् ! शत्रुओं का संन्ताप देनेवाला वीर दुर्योधन निरन्तर अपने भाइयोंका प्रिय कार्य करता था । ‘धनके दो ही फल हैं –दान और भोग ऐसा मन-ही-मन निश्चय करके वह इन्हींमें धनका उपयोग करता था ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत घोषयात्रापर्वमें युधिष्ठिरकी चिन्तासे सम्बन्ध रखनेवाला दो सौ सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ ।
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