महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-7

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:२६, २ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म प...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-7 का हिन्दी अनुवाद

जो ब्राह्मण होकर भी संध्‍योपासन से रहित हैं, जो अग्‍निहोत्र का त्‍याग करने वाले हैं, जो श्राद्ध – तर्पण से दूर रहनेवाले हैं, जो ब्राह्मण होकर शुद्र का अन्‍न खाने वाले हैं तथा जो मेरे, शंकरजी के, ब्रह्माजी के अथवा ब्राह्मणों के भक्‍त नहीं हैं – ये चौदह प्रकार के मनुष्‍य अधम होते हैं । इन्‍हीं पापियों के जन्‍म को व्‍यर्थ समझना चाहिये। राजन् ! जो दान अश्रद्धा या अपमान के साथ दिया जाता है, जिसे दिखावे के लिये दिया जाता है, जो पाखण्‍डी को प्राप्‍त हुआ है, जो शूद्र के समान आचरण वाले पुरुष को दिया जाता है, जिसे देकर अपने ही मुंह से बारंबार बखान किया गया है, जिसे रोषपूर्वक दिया गया है तथा जिसको देकर पीछे से उसके लिये शोक किया जाता है, जो दम्‍भ से उपार्जित अन्‍न का, झूठ बोलकर लाये हुए अन्‍न का, ब्राह्मण के धन का, चोरी करके लाये हुए द्रव्‍य का तथा कलंकी पुरुष के घर से लाये हुए धन का दान किया गया है, जो पतित ब्राह्मण को दिया गया है, जो दान वेदविहीन पुरुषों को और सबके यहां याचना करने वालों को दिया जाता है तथा जो संस्‍कारहीन पतितोंको तथा एक बार संन्‍यास लेकर फिर गृहस्‍थ – आश्रम में प्रवेश करने वाले पूरुषों को दिया जाता है, जो दान वेश्‍यगामी को और ससुराल में रहकर गुजारा करने वाले ब्राह्मण को दिया गया है, जिस दान को समूचे गांव से याचना करने वाले और कृतघ्‍न ने ग्रहण किया है एवं जो दान उपपातकी को, वेद बेचने वाले को, स्‍त्री वश में रहने वाले को, राज सेवक को, ज्‍योतिषी को, तान्‍त्रिक को, शुद्र जाति की स्‍त्री के साथ सम्‍बन्‍ध रखने वाले को, अस्‍त्र – शस्‍त्र से जीविका चलाने वाले को, नौकरी करने वाले को, सांप पकड़ने वाले को और पुरोहिती करने वाले को दिया जाता है, जिस दान को वैद्य ने ग्रहण किया है, राजश्रेष्‍ठ ! जो दान बनिये का काम करने वाले को, क्षुद्र मन्‍त्र जपकर जीविका चलाने वाले को, शूद्र के यहां गुजारा करने वाले को, रंगभूमि में नाच – कूदकर जीविका चलाने वाले को, मांस बेचकर जीवन – निर्वाह करने वाले को, सेवा का काम करने वाले को, ब्राह्मणोचित आचार से हीन होकर भी अपने को ब्राह्मण बतलाने वाले को, उपदेश देने की शक्‍ति से रहित को, व्‍याजखोर को, अनाचारी को, अग्‍निहोत्र न करने वाले को, संध्‍योपासना से अलग रहने वाले को, शूद्र के गांव में निवास करने वाले को, झूठे वेश धारण करने वाले को, सबके साथ और सब कुछ खाने वाले को, नास्‍तिक को, धर्म विक्रेता को, नीच वृत्‍ति वाले को, झूठी गवाही देने वाले को, तथा कूटनीति का आश्रय लेकर गांव के लोगों में लड़ाई – झगड़ा कराने वाले को ब्राह्मण को दिया जाता है, वे सब निष्‍फल होता है, इसमें कोई विचारणीय बात नहीं है। युधिष्‍ठिर ! ये सब विषय लोलुप, विप्रनामधारी ब्राह्मण अधम हैं, ये न तो अपना उद्धार कर सकते हैं और न दाता का ही। राजेन्‍द्र ! उपर्युक्‍त ब्राह्मणों को दिये हुए दान बहुत हों तो भी राख में डाली हुई घी की आहुति के समान व्‍यर्थ हो जाते हैं। उन्‍हें दिये गये दान का जो कुछ फल होने वाला होता है, उसे राक्षस और पिशाच प्रसन्‍नता के साथ लूट ले जाते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।