महाभारत वन पर्व अध्याय 260 श्लोक 20-36
षष्टयधिकद्विशततम (260) अध्याय: वन पर्व (व्रीहिद्रौणिक पर्व )
स्त्री पुत्रसहित अन्नके दाने चुनते हुए विप्रवर मुद्गलके हृदयमें क्रोध, द्वेष घबराहट तथा अपमान प्रवेश नहीं कर सके । इस प्रकार उच्छधर्मका पालन करनेवाले मुनिश्रेष्ठ मुद्गलके घरपर महर्षि दुर्वासा उनका धैर्य छुड़ानेका दृढ़ निश्चय लेकर लगातार छ: बार ठीक पर्वके समय उपस्थित हुए । किन्तु उन्होंने उनके मनमें कभी कोई विकार नहीं देखा शुद्ध अन्त: करण वाले महर्षि मुद्गलके मनको दुर्वासाने सदा शुद्ध और निर्मल ही पाया । तब वे प्रसन्न होकर मुद्गलसे बोले –‘ब्रह्मन् ! इस संसारमें ईर्ष्यासे रहित होकर दान देनेवाला मनुष्य तुम्हारे समान दूसरा कोई नहीं है । ‘भूख ( बडे-बडे लोगोंके ) धर्म ज्ञान को विलुप्त कर देती है, धैर्य हर लेती है तथा रसका अनुसरण करनेवाली रसना सदा रसीले पदार्थोकी ओर मनुष्यको खींचती रहती है । ‘भोजन ही प्राणोंकी रक्षा होती है । चच्चल मनको रोकना अत्यन्त कठिन होता है । मन और इद्रियों की एकग्रताको ही निश्चित रूपसे तप कहा गया है ।‘परिश्रमसे उपार्जित किये हुए धनका शुद्ध ह्रदयसे दान करना अत्यन्त दुष्कर है । परंतु श्रेष्ठ पुरूष ! तुमने यह सब यथार्थ रूपसे सिद्ध कर लिया है । ‘तुमसे मिलकर हम बहुत प्रसन्न है और अपने ऊपर तुम्हारा अनुग्रह मानते हैं । इद्रियसंयम, धैर्य, संविमान (दान), शम, दम, सत्य और धर्म-ये सब गुण तुम में पुर्ण रूपसे विद्यमान हैं ।तुम्हारे-जैसा पवित्र अन्त: करणवाला दूसरा कोई नहीं है । तुमने अपने शुम कमोंसे सभी लोकोंको जीत लिया; परमपद को प्राप्त कर लिया ।‘अहो ! स्वर्गवासी देवताओंने भी तुम्हारे महान् दानकी सर्वत्र घोषणा की है । उतम व्रतका पालन करनेवाले महर्षे ! तुम संदेह स्वर्ग लोकको जाओगे’ । दुर्वासा मुनि इस प्रकार कह ही रहे थे कि एक देवदूत विमानके साथ मुद्रल ऋषिके पास आ पहुँचा । उस विमानमें हंस एवं सारस जुते हुए थे । क्ष्ुाद्रघण्टिकाओंकी जालीसे उसे सुसज्जित किया गया था तथा उससे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी ।वह विमान देखनेमें बडा विचित्र और इच्छानुसार चलने वाला था । देवदुतने ब्रह्रार्षि मुद्गल से कहा- ‘मुने ! यह विमान आप को शुभ कर्मोंसे प्राप्त हुआ है । इसपर बैठिये । आप परम सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं’। देवदूतके ऐसा कहनेपर महर्षि मुदलने उससे कहा-‘देवदुत ! मैं तुम्हारे मुखसे स्वर्गवासियोंके गुण सुनना चाहता हूँ । वहॉं रहने वालोंमें कौन-कौनसे गुण होते हैं ? कैसी तपस्या होती है ? और उनका निश्रित विचार कैसा होता है ? स्वर्गमें क्या सुख है और वहॉं क्या दोष है ? ‘प्रभो ! सत्पुरूषोंमें सात पग एक साथ चलनेसे ही मित्रता हो जाती है, ऐसा कुलीन सत्पुरूषोंका कथन है । मैं उसी मैत्रीको सामने रखकर तुमसे उपर्युक्त प्रश्न पूछ रहा हॅू ।‘इसके उत्तरमें जो सत्य एवं हितकर बात हो, उसे बिना किसी हिचकिचाहटके कहो । तुम्हारी बात सुनकर उसीके द्वारा मैं अपने कर्तव्यका निश्चिय करुँगा’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत व्रीहिद्रौणिकपर्वमें मुद्गलोपाख्यानसम्बन्धी दो सौ साठवां अध्याय पूरा हुआ ।
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