महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-13
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
केवल गायत्री मात्र जानने वाला ब्राह्मण भी यदि नियम से रहता है तो वह श्रेष्ठ है ; किंतु जो चारों वेदों का विद्वान् होने पर भी सबका अन्न खाता है, सब कुछ बेचता है और नियमों का पालन नहीं करता है, वह उत्त्म नहीं माना जाता। राजन् ! पूर्व काल में देवता और ऋषियों ने ब्रह्माजी के सामने गायत्री – मंत्र और चारों वेदों को तराजू पर रखकर तौला था । उस समय गायत्री का पलड़ा ही चारों वेदों से भारी साबित हुआ। पाण्डव ! जैसे भ्रमर खिले हुए फूलों से उनके सारभूत मधु को ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण वेदों से उनके सारभूत गायत्री का ग्रहण किया गया है। इसलिये गायत्री सम्पूर्ण वेदों का प्राण कहलाती है । नरेश्वर ! गायत्री के बिना सभी वेद निर्जीव हैं। नियम और सदाचार से भ्रष्ट ब्राह्मण चारों वेदों का विद्वान् हो तो भी वह निन्दा का ही पात्र है, किन्तु शील और सदाचार से युक्त ब्राह्मण यदि केवल गायत्री का जप करता हो तो भी वह श्रेष्ठ माना जाता है। प्रतिदिन एक हजार गायत्री - मंत्र का जप करना उत्तम है, सौ मन्त्र का जप करना मध्यम और दस मन्त्र का जप करना कनिष्ठ माना गया है । कुन्तीनन्दन ! गायत्री सब पापों को नष्ट करने वाली है, इसलिये तुम सदा उसका जप करते रहो। युधिष्ठिर ने पूछा – त्रिलोकीनाथ ! आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं । विभिन्न योगों के द्वारा प्राप्तव्य सर्वश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ! बताइये, किस कर्म से आप संतुष्ट होते हैं ? श्रीभगवान् ने कहा – भारत ! कोई एक हजार भार गुग्गल आदि सुगन्धित पदार्थों का जलाकर मुझे धूप दे, निरन्तर नमस्कार करे, खूब भेंट – पूजा चढ़ावे तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामदेव की स्तुतियों से सदा मेरा स्तवन करता रहे ; किंतु यदि वह ब्राह्मण को संतुष्ट न कर सका तो मैं उस पर प्रसन्न नहीं होता। भरतश्रेष्ठ ! इसमें संदेह नहीं कि ब्राह्मण की पूजा से सदा मेरी पूजा हो जाती है और ब्राह्मण को कटुवचन सुनाने से मैं ही उस कटु वचन का लक्ष्य बनता हूं। जो ब्राह्मण की पूजा करते हैं, उनकी परमगति मुझमें ही होती है ; क्योंकि पृथ्वी पर ब्राह्मणों के रूप में मैं ही निवास करता हूं। पुरुषश्रेष्ठ ! जो बुद्धिमान् मनुष्य मुझ में मन लगाकर ब्राह्मणों की पूजा करता है, उसको मैं अपना ही स्वरूप समझता हूं। ब्राह्मण यदि कुबड़े, काने, बौने, दरिद्र और रोगी भी हों तो विद्वान् पुरुषों को कभी उनका अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे सब मेरे ही स्वरूप हैं। समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के ऊपर जितने भी ब्राह्मण हैं, वे सब मेरे स्वरूप हैं । उनका पूजन करने से मेरा भी पूजन हो जाता है। बहुत – से अज्ञानी पुरुष इस बात को नहीं जानते कि मैं इस पृथ्वी पर ब्राह्मणों के रूप में निवास करता हूं। जो ब्राह्मण को गाली देकर और उनकी निन्दा करके प्रसन्न होते हैं, वे जब यमलोक में जाते हें तब लाल – लाल आंखो वाले क्रूर यमराज उन्हें पृथ्वी पर पटककर छाती पर सवार हो जाते हैं और आग में तपाये हुए संड़सों से उनकी जीभ उखाड़ लेते हैं। जो पापी ब्राह्मणों की ओर पापपूर्ण दृष्टि से देखते हैं, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति नहीं करते, वैदिक मर्यादा का उल्लघंन करते हैं ओर सदा ब्राह्मणों के द्वेषी बने रहते हैं, वे जब यमलोक में पहुंचते हैं।
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