महाभारत वन पर्व अध्याय 267 श्लोक 1-18
सप्तषष्टयधिकद्विशततम (267) अध्याय: वन पर्व ( द्रौपदीहरण पर्व )
वैशम्पायनजी कहते हैं –भारत ! पूर्वोंत्त प्रकारसे रथपर बैठे हुए उन सब राजाओंके पास जाकर कोटिकास्यने द्रौपदीके साथ उसकी जो-जो बातें हुई थीं, वे सब कह सुनायीं । कोटिकास्यकी बात सुनकर सौवीरनरेश जयद्रथने उससे कहा-‘शैव्य ! सुन्दरियोंमें सर्वश्रेष्ठ वह युवती जब तुमसे बातचीत कर रही थी, उस समय मेरा मन उसीमें लगा हुआ था । तुम उसे साथ लिये बिना कैसे लौट आये महाबाहो ! मैं तुमसे यह सच कहता हूँ इसे देखकर मुझे दूसरी स्त्रियां ऐसी जान पड़ती हैं, मानो बंदरियां हों । उसने दर्शनमात्रसे ही मेरे मनको अच्छी तरह हर लिया है । शैव्य ! यदि वह मानवी हो, तो उस कल्याणीके विषयमें ठीक-ठीक बताओ' । कोटिक बोला – सौवीरनरेश ! यह यशस्विनी राज – कुमारी द्रुपदपुत्री कृष्णा ही है, जो पाँचो पाण्डवोंकी अत्यन्त आदरणीया महारानी है। कुन्तीके सभी पुत्र इसे प्यार करते हैं । यह सती-साध्वी देवी अपने पतियोंके लिये बड़े सम्मानकी वस्तु है । तुम उससे मिलकर सौवीरदेशकी राह लो । वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! कोटिकास्यके ऐसा कहनेपर सौवीर और सिन्धु आदि देशोंके स्वमी जयद्रथने मनमें दुर्भावना लेकर उसे उत्तर दिशा-‘ अच्छा, मैं भी द्रौपदीसे मिल लेता हूँ’। उसने अपने छ: भाइयोंके साथ स्वयं सातवाँ बनकर द्रौपदीके पवित्र आश्रम में प्रवेश किया, मानो कोई भेडिया सिंहकी माँदमें घुसा हो । वहाँ जाकर उसने द्रौपदीसे इस प्रकार कहा – ‘ वरारोहे ! तुम कुशलसे हो न तुम्हारे पति निरोग तो हैं न इसके सिवा और जिन लोगोंको तुम सकुशल देखना चाहती हो, वे सभी स्वस्थ तो हैं न । द्रौपदी बोली- राजन् तुम स्वयं सकुशल हो न तुम्हारे राज्य, खजाना और सैनिक तो कुशलसे हैं न, समृद्धिशाली शिबि, सौवीर, सिन्धु तथा अन्य जो-जो प्रदेश तुम्हारे अधिकारमें आ गये हैं, उन सबकी प्रजाका धर्मपूर्वक पालन तो करते हो न । मेरे पति कुरूकुलरत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर सकुशल हैं । मैं,उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगोंके विषयमें तुम पूछ रहे हो, वे सब कुशलसे हैं । राजकुमार ! यह पैर धोनेके लिये जल है, इसे ग्रहण करो और यह आसन है, इसपर बैठो । जयद्रथने कहा – आओ चलो, मेरे रथपर बैठो और अखण्ड सुखका उपभोग करो । अब पाण्डवोंके पास धन नहीं रहा । उनका राज्य छीन लिया गया । वे दीन और उत्साह हीन हो गये हैं । अब इन वनबासी कुन्तीपुत्रोंका अनुसरण करना तुम्हें शोभा नहीं देता । विदुषी स्त्रियाँ निर्धन पतिकी उपासना नहीं करती हैं । स्वामीके पास जबतक लक्ष्मी रहे, तभीतक उसके साथ रहना चाहिये । जब पति की सम्पति नष्ट हो जाय, तो वहाँ कदापि न रहे । पाण्डव सदाके लिये श्रीहीन तथा राज्यभ्रष्ट हो गये हैं । अब तुम्हें पाण्डवोंके प्रति भक्ति रखकर कष्ट भोगनेकी आवश्यकता नहीं है । सुन्दरी ! तुम मेरी भार्या बन जाओ । इन पाण्डवोंको छोड़ दो और मेरे साथ रहकर सुख भोगो । मेरे साथ रहने से तुम्हें सिन्धु और सौवीर देश का राज्य प्राप्त होगा, तुम महारानी बनोगी । वैशम्पायनजी कहते है - जनमेजय ! सिन्धुराज जयद्रथके मुखसे यह हृदय कँपा देनेवाली बात सुनकर द्रुपद कुमारी कृष्णा उस स्थानसे दूर हट गयी । उसके मुखपर रोष छा गया और उसकी भौहें तन गयी ।
« पीछे | आगे » |