महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 55-76
द्विसप्तत्यधिकद्विशततम (272) अध्याय: वन पर्व (जयद्रथविमोक्षण पर्व )
‘इस प्रकार यज्ञवाराहरूप धारण करके भगवान् नें जलके भीतर प्रेवेश किया और एक ही दॉंतसे पृथ्वीको उठाकर उसे अपने स्थानपर स्थापित कर दिया । ‘तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीहरिने एक अपूर्व शरीर धारण किया, जिसमें आधा अंग तो मनुष्यका था और आधा सिंहका । इस प्रकार नृसिंहरूप धारण करके हाथसे हाथका स्पर्श किये हुए दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी सभामें गये । दैत्योंके आदि पुरूष और देवताओंके शत्रु दितिनन्दन हिरण्यकशिपुने उस अपूर्व पुरूषको देखकर क्रोधसे आंखें लाल कर लीं । उसने एक हाथमें शूल उठा रखा था । उसके गलेमें पुष्पोंकी माला शोभा पा रही थी । उस समय वीर हिरण्यकशिपुने, जिसकी आवाज मेघकी गर्जनाके समान थी, जो नीले मेघोंके समूह-जैसा श्याम था तथा जो दितिके गर्भसे उत्पन्त्र होकर देवताओंका शत्रु बना हुआ था; भगवान् नृसिंहपर धावा किया ।‘इसी समय अत्यन्त बलवान् मृगेन्द्रस्वरूप भगवान् नृसिंहने दैत्यके निकट जाकर उसे अपने तीखे नखोंद्वारा अत्यन्त विदीर्ण कर दिया । ‘इस प्रकार शत्रुघाती दैत्यराज हिरण्यकशिपुका वध करके भगवान् कमलनयन ने श्रीहरि पुन: सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये अन्य रूपमें प्रकट हुए । ‘उस समय वे कश्यपजीके तेजस्वी पुत्र हुए । अदितिदेवी ने उन्हें गर्भमें धारण किया था । पूरे एक हजार वर्षतक गर्भमें धारण करनेके पश्चात अदितिने एक उत्तम बालकको जन्म दिया । ‘वह वर्षाकालके मेघके समान श्यामवर्ण था । उसके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे । वे वामनाकार, दण्ड और कमण्डलु धारण किये तथा वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सचिन्हसे विभूषित थे । ‘उनके सिरपर जटा थी और गलेमें यज्ञोपवीत शोभा पाता था । उस समय वे बालरूपधारी श्रीमान भगवान् दानवराज बलिकी यज्ञशालाके समीप गये । ‘बृहस्पतिजीकी सहायतासे उनका बलिके यज्ञमण्डपमें प्रवेश हुआ । वामनरूपधारी भगवान् को देखकर राजा बलि बहुत प्रसन्न हुए और बोले- ‘ब्रह्मन् ! आपका दर्शन पाकर मैं बहुत प्रसन्त्र हुआ हूँ । आज्ञा कीजिये, मैं आपकी सेवाके लिये क्या दूँ १बलिके ऐसा कहनेपर भगवान् वामनने ‘( आपका ) स्वस्ति ( कल्याण हो )’ ऐसा कहकर बलिको आशीर्वाद दिया और मुस्कराते हुए कहा-‘दानवराज ! मुझे तीन पग पृथ्वी दे दीजिये’ । ‘बलिने प्रसन्त्रचित्त होकर उन अमिततेजस्वी ब्राह्माण देवता को उनकी मुँहमाँगी वस्तु दे दी । तब भूमिको नापते समय श्रीहरिका अत्यन्त अद्भुत दिव्य रूप प्रकट हुआ । ‘उन अक्षोभ्य सनातन विष्णुदेवने तीन पग द्वारा शीघ्र ही सारी वसुधा नाप ली और देवराज इन्द्रको समर्पित कर दी । ‘यह मैंने तुम्हें भगवान् के वामानावतारकी बात बतायी है । उन्हींसे देवताओंकी उत्पत्ति हुई है । यह जगत् भी भगवान् विष्णुसे प्रकट होनेके कारण वैष्णव कहलाता है । ‘राजन् ! वे ही भगवान् विष्णु दुष्टोंका दमन और धर्मका संरक्षण करनेके लिये मनुष्योंके बीच यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं । उन्हींको श्रीकृष्ण कहते हैं । वे अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्यस्वरूप, सर्व समर्थ और विश्वन्दित हैं ।‘सिन्धुराज ! विद्वान् पुरूष उन्ही भगवान् की महिमा गाते और उन्हींके पावन चरित्रोंका वर्णन करते हैं उन्हींको अपराजित शंखचक्रगदाधारी पीतपट्टाम्बरविभूषित श्रीवत्सधारी भगवान् श्रीकृष्ण कहा गया है । अस्त्रविद्याके विद्वानोंमें श्रेष्ठ अर्जुन उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित हैं । ‘शत्रुवीरोंका संहार करने वाले अतुल पराक्रमी श्रीमान् कमलनयन श्रीकृष्ण एक ही रथपर अर्जुनके समीप बैठकर उनकी सहायता करते हैं । ‘इस कारण अर्जुनको कोई नहीं जीत सकता । उनका वेग सहन करना देवताओंके लिये भी कठिन है; फिर कौन ऐसा मनुष्य है, जो युद्धमें अर्जुनपर विजय पा सके ?
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