महाभारत विराट पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-17

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षट्त्रिंश (36) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

महाभारत: विराट पर्व षट्त्रिंश अध्याय श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

उत्तर का अपने लिये सारथि ढूंढने का प्रस्ताव, अर्जुन की सम्मति से द्रौपदी का बृहन्नला को सारथि बनाने के लिये सुझाव देना

उत्तर बोला- गोपप्रवर ! मेरा धनुष तो बहुत मजबूत है। यदि मेरे पास घोड़े हाँकने की कला में कुशल कोई सारथि होता, तो आज मैं अवश्य ही उन गौओं के पदचिन्हों का अनुसरण करता। इस समय मुझे ऐसे किसी मनुष्य का पता नहीं है, जो मेरा सारथित बन सके। मैं युद्ध के लिये प्रस्थान करूँगा, अतः शीघ्र मेरे लिये किसी योग्य सारथि की तलाश करो। पहले लगातार अट्ठाइस रात तक अथवा अनततः एक मास तक जो युद्ध हुआ था, उसमें मेरा सारथि मारा गया था। अतः यदि घोड़े हाँकने की कला जानने वाले किसी दूसरे मनुष्य को भी पा जाऊँ, तो अभी बड़े वेग से जाकर ऊँची-ऊँची विशाल ध्वजा से विभूषित एवं हाथी,ए घोड़े तथा रथों से भरी हुई शत्रुओं की सेना में घुस जाऊँ ओर अपने आयुधों के प्रजाप से कौरवों को निर्वीर्य (पराक्रमशून्य) तथा परास्त करके सम्पूर्ण पशुओं को लौटा लाऊ। जैसे चज्रधारी इन्द्र दानवों को भयभीत कर देते हैं, उसी प्रकार मैं दुयार्कधन, शान्तनुनन्दन भीष्म, सूर्यपुत्र कर्ण, कृपाचार्य तथा पुत्र (अश्वत्थामा) सहित द्रोणाचार्य आदि महान् धनुर्धरों को, जो यहाँ आये हैं, युद्ध में अत्यनत भय पहुँचाकर इसी मुहुर्त में अपने पशुओं को वापस ला सकता हूँ।। गोष्ठ को सूना पाकर कोरव लोग गोधन लिये जा रहे हैं। परंतु अब मैं यहाँ से क्या कर सकता हूँ ? जब कि वहाँ उस समय मैं मौजूद नहीं था। अच्छा, जब कौरव लोग यहाँ आ ही गये हैं, तब आज मेरा पराक्रम देख लें। फिर तो वे कहेंगे- ‘क्या यह साक्षात् कुन्तीपुत्र अर्जुन ही हमें पीड़ा दे रहा है ?’। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार बालते हुए राजकुमार उत्तर की वह बात सुनकर सब बातों में कुशल अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। उस समय तक उनके अज्ञातवास की अवधि पूरी हो गयी थी। अतः उन्होंने अपनी सती-साध्वी प्यारी पत्नी पान्चालराजकुमारी द्रौपदी को, जिसका अग्नि से प्रादुर्भाव हुआ था और जो तन्वंगी, सत्य-सरलता आदि सद्गुणों से विभूषित तथा पति के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाली थी, एकान्त में बुलाकर कहा- ‘कल्याणि ! तुम मेरी बात मानकर राजकुमार उत्तर से इस प्रकार कहो- ‘यह बृहननला पाण्डुनन्दन अर्जुन का सारथि रह चका है। उसने बड़े-बड़े युद्धों में सफलता प्रापत की है। चह तुम्हारा सारथि हो जायगा’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उत्तर स्त्रियों के बीच में बैठा था और बार-बार अपनी तुलना में अर्जुन का नाम लेकर डींग मार रहा था।। पान्चालराजकुमारी द्रौपदी से यह सहन न हो सका। वह तपस्विनी स्त्रियों के बीच से उठकर उत्तर के समीप आयी और लजाती हुई सी धीरे -धीरे इस प्रकार बोली- ‘राजकुमार ! यह जो विशाल गजराज के समान हृष्ट-पुष्ट, तरुण, सुनदर और देखने में अत्यनत प्रिय ‘बृहन्नला’ नाम से विख्यात नर्तक है, पहले कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथि था। ‘वीर ! यह उन्हीं महात्मा का शिष्य है, अतः धनुर्विद्या मे भी उनसे कम नहीं है। पहले पाण्डवों के यहाँ रहते समय मैंने इसे देखा है। ‘



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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