महाभारत वन पर्व अध्याय 268 श्लोक 1-12
अष्टषष्टयधिकद्विशततम (267) अध्याय: वन पर्व ( द्रौपदीहरण पर्व )
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! जयद्रथकी बात सुनकर द्रौपदीका सुन्दर मुख क्रोधसे तमतमा उठा, आंखें लाल हो गयीं, भौंहें टेढ़ी होकर तन गयीं और उसने सौवीरराज जयद्रथको फटकारकर पुन: इस प्रकार कहा- ‘अरे मूढ़ ! पति पाण्डव महान् यशस्वी, सदा अपने धर्मके पालनमें स्थित, यक्षों तथा राक्षसोंके समूहमें भी यद्ध करनेमें समर्थ, देवराज इन्द्रके सद्दश शक्तिशाली तथा महारथी वीर हैं । उनका क्रोध तीक्ष्ण विषवाले नागोंके समान भयंकर हैं । उनके सम्मानके विरूद्ध ऐसी ओछी बातें कहते हुए तुझे लज्जा कैसे नहीं आती । ‘अच्छे लोग पूजनीय, तपस्वी तथा पूर्ण विद्वान् पुरूषके प्रति भले ही वह वनवासी हो या गृहस्थ कोई अनुचित बात नहीं कहते हैं । जयद्रथ ! मनुष्योंमें जो तेरे-जैसे कुत्ते है, वे ही इस तरह भूँका करते हैं । ‘मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि इस क्षत्रियमण्डलीमें कोई भी तेरा ऐसा हितैषी स्वजन नहीं है, जो आज तेरा हाथ पकड़कर तुझे पातालके गहरे गर्तमें गिरनेसे बचा ले। अरे ! जैसे कोई मूर्ख मनुष्य हिमालयकी उपत्यकामें विचरनेवाले पर्वतशिखरके समान ऊँचें एवं मदकी धारा बहानेवाले गजराजको हाथमें डंडा लेकर यूथसे अलग हाँक लाना चाहे, उसी प्रकार तू धर्मराज युधिष्ठिरको जीतनेका हौसला रखता है । ‘तू मूर्खतावश ( अपनी मॉंद में ) सोये हुए महाबली सिंहको लात मारकर उसके मुखके बाल नोंच रहा है । जिस समय तू क्रोधमें भरे हुए भीमसेनको देखेगा, उस समय तुरंत भाग छूटेगा । ‘यदि तू रोष में भरे हुए भंयकर योद्धा अर्जुनसे जूझना चाहता है, तो समझ ले कि पर्वतकी कन्दराओंमें उत्पन्त्र हो वहीं पलकर बढ़े हुए अत्यन्त घोर और महाबली सोये हुए भयानक सिंहको तू पैरसे ठोकर मार रहा है । ‘यदि तू पुरूषरत्न दोनों छोटे पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी इच्छा रखता है, तो यह मानना पड़ेगा कि मतवाला होकर तू मुखमें तीक्ष्ण विष धारण करनेवाले एवं दो जिहृाओंसे युक्त दो काले नागोंकी पूंछको पैरसे कुचल रहा है । ‘अरे मूर्ख ! जैसे बांस, केला और नरकुल-ये अपने विनाशके लिये ही फलते हैं, समृद्धिके लिये नहीं तथा जैसे केकड़ेकी मादा अपनी मृत्युके लिये ही गर्भ धारण करती-है, उसी प्रकार तू पाण्डवोंद्वारा सदा सुरक्षित मुझ द्रौपदीका अपनी मृत्युके लिये ही अपहरण करना चाहता है’। जयद्रथने कहा –क़ृष्णे ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पति राजकुमार पाण्डव कैसे हैं मुझे ये सब बातें मालूम हैं । परन्तु इस समय इस विभीषिकाद्वारा तुम हमें डरा नहीं सकतीं । द्रुपदकुमारी कृष्णे ! हम सब लोग उन श्रेष्ठ कुलोंमे उत्पन्त्र हुए हैं, जो सत्रह गुणोंसे सम्पन्त्र हैं इसके सिवा हम छ: गुणोंको पाकर पाण्डवोंसे बढ़े-चढ़े हैं, अत: उन्हें अपनेसे हीन मानते हैं । कृष्णे ! तुम बड़ी-बड़ी बातें बनाकर हमें रोक नहीं सकतीं । अब तुम्हारे सामने दो ही मार्ग हैं-या तो सीधी तरहसे तुरंत चलकर मेरे हाथी या रथपर सवार हो जाओ; अथवा पाण्डवोंके हार जानेपर दीन वाणीमें विलाप करती हुई सौवीरराज जयद्रथसे कृपा की भीख मांगो ।
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