महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-16

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एकविंश (21) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवध पर्व)

महाभारत: विराट पर्व एकविंश अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन और द्रौपदी का संवाद

भीमसेन बोले - देवि ! मेरे बाहुबल को तथा अर्जुन के गाण्डीव धनुष को भी धिक्कार है; क्योंकि तुम्हारे ये दोनों कोमल हाथ, जो पहले लाल थे, अब घड्डे पड़ने से काले हो गये हैं। मैं तो उसी दिन विराट की सभा में ही भारी संहार मचा देता, किंतु ऐसा न करने में कारण बने कुन्तीनन्दन महाराज युघिष्ठिर। वे प्रकट हो जाने का भय सूचित करते हुए मेरी ओर देखने लगे अथवा ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हुए उस कीचक ेा मसतक मैं उसी प्रकार पैरों से रौंदडालता जैसे क्रीड़ा करता हुआ महान् गजराज कीचक (बाँस) के वृक्ष को मसल डालता है।। कृष्णे ! जब कीचक ने तुम्हें लात से मारा था, उस समय मैं वहीं था और अपनी आँखों यह घटना मैंने देखी थी। उसी क्षण मेरी इच्छा हुई कि आज इन मत्स्यदेशवासियों का महासंहार कर डालूँ। किंतु धर्मराज ने वहाँ नेत्रों से संकेत करके मुझे ऐसा करने से रोक दिया। भामिनी ! उनके उस इशारे को समझकर ही मैें चुप रह गया। जिस दिन हमें राज्य से वंचित किया गया, उसी दिन जो कौरवों वध नहीं हुआ, दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा पापी दुःशासन के मस्तक मैंने नहीं काट डाले, यह सब सोचकर मेरे हृदय में काँटा सा चुभ जाता है और शरीर में आग लग जाती है। सुश्रोणि ! तुम बड़ी बुद्धिमती हो, धर्म को न छोड़ो; क्रोध त्याग दो। कल्याणी ! यदि राजा युधिष्ठिर तुम्हारे मुख से यह सारा उपालम्भ सुनेंगे, तो प्राण त्याग देंगे। सुश्रोणि ! तनुमध्यमे !फ धनंजय अथवा नकुल-सहदेव भी इसे सुनकर जीवित नहीं रह सकते। इन सबके परलोकवासी हो जाने पर मैं भी नहीं जी सकूँगा। प्राचीन काल की बात है, भृगुनन्दन महर्षि च्यवन तपस्या करते-करते बाँबी के समान हो गये थे, मानो अब उनका जीवन-दीप बुझ जायगा; ऐसी दशा हो गयी थी, तो भी उनकी कल्याणमयी पत्नी सुकन्या ने उन्हीं का अनुसरण किया- वह उन्हीं की सेवासुश्रुसा में लगी रही। नारायणी इन्द्रसेना भी अपने रूप-सौन्दर्य के कारण विख्यात थी। तुमने भी उसका नाम सुना होगा। पूर्वकाल में उसने अपने हजार वर्ष के बूढ़े पति मुद्गल ऋषि की निरन्तर सेवा की थी। जनकनन्दिनी सीता का नाम तो तुम्हारे कानों में पड़ा ही होगा। उन्होंने अत्यन्त घोर वन में निवास करते वाले अपने पति श्रीरामचन्द्रजी का अनुगमन किया था। सुश्रोणि ! जानकी श्रीराम की प्यारी रानी थी। वे राक्षस की कैद में पड़कर दीघकाल तक क्लेश उठाती रहीं, तो भी उन्होंने श्रीराम को ही अपनाये रक्खा; अपना धर्म नहीं छोड़ा। भीरु ! नयी अवस्था और अनुपम रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न राजकुमारी लोपमुद्रा ने सम्पूर्ण अलौकिक सुख-भोगों पर लात मारकर अपने पति महर्षि अगस्त्य का ही अनुसरण किया था। सती-साध्वी नस्विनी सावित्री द्युमत्सेन के पुत्र वीरवर सत्यवान् के मर जाने पर उनके पीछे-पीछे अकेली ही यमलोक की ओर गयी थी। कल्याणि ! इन रूपवती पतिव्रता नारियों का जैसा आदर्श बताया गया है, उसी प्रकार तुम भी समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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