महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 343 श्लोक 20-43

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त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (343) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-43 का हिन्दी अनुवाद

त्रिलोकीनाथ भगवान कृष्ण ही जब उनके सहायक थे, तब उनके लिये तीनों लोकों में किसी वस्तु की प्राप्ति असम्भव रही हो यह मैं नहीं मानता।। ब्रह्मन् ! मेरे सभी पूर्वज धन्य थे, जिनका हित और कल्याण करने के लिये साक्षात् जनार्दन तैयार रहते थे।। लोकपूजित भगवान नारायण का दर्शन तो तपस्या से ही हो सकता है; किन्तुमेरे पितामहों ने श्रीवत्स के चिन्ह से विभूषित उन भगवान का साक्षात् दर्शन अनायास ही पा लिया था। उन सबसे भी अधिक धन्यवाद के योग्य ब्रह्मपुत्र नारदजी हैं। मैनें अविनाशी नारदजी को कम तेजस्वी ऋषि नहीं समझता, जिन्होंने श्वेतद्वीप में पहुँचकर साक्षात श्रीहरि का दर्शन प्रापत कर लिया। उनका वह भगवद्-दर्शन स्पष्ट ही उन भगवान की कृपा का फल है।। मुने ! नारदजी ने उस समय श्वेतद्वीप में जाकर जो अनिरुद्ध-विग्रह में स्थित नारायणदेव का साक्षात्कार किया तथा पुनः नर-नारायण का दर्शन करने के लिये जो बद्रिकाश्रम को प्रस्थान किया, इसका क्या कारण है ? ब्रह्मपुत्र नारदजी श्वेतद्वीप से लौटने पर जब बद्रिकाश्रम में पहुँकर उन दोनों ऋषियों से मिले, तब वहाँ उन्होंने कितने समय तक निवास किया ? और वहाँ उनसे किन-किन प्रश्नों का पूछा ? श्वेतद्वीप लौटे हुए उन नारदजी से महात्मा नर-नारायण ऋषियों ने क्या बात की थी ? ये सब बातें आप यथार्थ रूप से बताने की कृपा करें।

वैशम्पायनजी ने कहा - अमित तेजस्वी भगवान व्यास को नमस्कार है, जिनके कृपा प्रसाद से मैं भगवान नारायण की यह कथा कह रहा हूँ। राजन् ! श्वेत नामक महाद्वीप में जाकर वहाँ अविनाशी श्रीहरि का दर्शन करके जब नारदजी लौटे, तब बड़े वेग से मेरु पर्वत पर आ पहुँचे। परमात्मा श्रीहरि ने उनसे जो कुछ कहा था, उस कार्यभार को वे हृदय से ढो रहे थे। नरेश्वर ! तत्पश्चात् उनके मन में यह सोचकर बड़ा भारी विस्मय हुआ कि मैं इतनी दूर का मार्ग तय करके पुनः यहाँ सकुशल कैसे लौट आया ? तदनन्तर वे मेरु से गन्धमादन पर्वत की ओर चले और बद्रीविशाल तीर्थके समीप तुरंत ही आकाश से नीचे उतर पड़े। वहाँ उन्होंने उन दोनों पुरातन देवता ऋषिश्रेष्ठ नर-नारायण का दर्शन किया, जो आत्मनिष्ठ हो महान् व्रत लेकर बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। वे दोनों सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाले सूर्य से भी अधिक तेजस्वी थे। उन पूज्य महात्माओं के वक्षःस्थल में श्रीवत्स के चिन्ह सुशोभित हो रहे थे और वे अपने मस्तक पर जटामण्डल धारण किये हुए थे। उनके हाथों में हंस का और चरणों में चक्र का चिन्ह था। विशाल वक्षःस्थल, बड़ी-बड़ी भुजाएँ, अण्डकोष में चार-चार बीज, मुख में साठ दाँत और आठ दाढ़ें, मेघ के समान गम्भीर स्वर, सुन्दर मुख, चैड़े ललाट, बाँकी भौंहें, सुन्दर ठोढ़ी और मनोहर नासिका से उन दोनों की अपूर्व शोभा हो रही थी। उन दोनों देवताओं के मस्तक छत्र के समान प्रतीत होते थे। ऐसे शुभ लक्षणों से सम्पन्न उन दोनों महापुरुषों का दर्शन करके नारदजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। भगवान नर और नारायण ने भी नारदजी का स्वागत-सत्कार करके उनका कुशल समाचार पूछा। तदनन्तर नारदजी ने उन दोनों पुरुषोत्तमों की ओर देखकर मन-ही-मन विचार किया, अहो ! मैंने श्वेतद्वीप में भगवान की सभा के भीतर जिन सर्वभूत वन्दित सदस्यों को देखा था, ये दोनों ऋषिश्रेष्ठ भी वैसे ही हैं।। मन-ही-मन ऐसा सोचकर वे उन दोनों की प्रदक्षिणा करके एक सुन्दर कुशासन पर बैठ गये। तदनन्तर तपस्या, यश और तेज के भी निवासस्थान वे शम-दम सम्पन्न दोनों ऋषि पूर्वान्हकाल का नित्य कर्म पूर्ण करके फिर शान्त-भाव से पाद्य और अध्र्य आदि निवेदन करके नारदजी की पूजा करने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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