महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 345 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:२६, २ अगस्त २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (345 ) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

भगवान वराह के द्वारा पितरों के पूजन की मर्यादा का स्थापित होना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! किसी समय ब्रह्मपुत्र नारदजी ने शास्त्रीय विधि के अनुसार पहले देवकार्य (हवन-पूजन) करके फिर पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) किया। तब धर्म के ज्येष्ठ पुत्र नर ने उनसे इस प्रकार पूछा- ‘द्विजश्रेष्ठ ! तुम बुद्धिमानों में अग्रगण्य हो। तुम्हारे द्वारा देवकार्य और पितृकार्य के सम्पादित होने पर उन कर्मों से किसकी पूजा सम्पन्न होती है ? यह मुझे शास्त्र के अनुसार बताओ। तुम यह कौन सा कर्म करते हो ? और इसके द्वारा किस फल को प्राप्त करना चाहते हो ?

नारदजी कहते हैं - प्रभो ! आपने ही पहले यह कहा था कि देवकर्म सबके लिये कर्तव्य है; क्योंकि देवकर्म उत्तम यज्ञ है और यज्ञ सनातन परमात्मा का स्वरूप है। अतः आपके उस उपदेश से प्रभावित होकर मैं प्रतिदिन अविनाशी भगवान वैकुण्ठ का यजन करता हूँ। उन्हीं से सर्वप्रथम लोकपितामह ब्रह्माजी प्रकट हुए हैं।। परमेष्ठी ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर मेरे पिता प्रजापति को उत्पन्न किया [१]। मैं उनका संकल्पजनित प्रथम पुत्र हूँ।। साधो ! मैं पहले नारायण की आराणना का कार्य पूर्ण कर लेने पर पितरों का पूजन करता हूँ। इस प्रकार वे भगवान नारायण ही मेरे पिताख् माता और पितामह हैं।। पितृयज्ञों में सदा श्रीहरि की ही आराधना की जाती है। एक दूसरी श्रुति है कि पिताओं (देवताओं) ने पुत्रों (अग्निष्वात्त[२]आदि) का पूजन किया। देवताओं का वेदज्ञान भूल गया था; फिर उनके पुत्रों ने ही उन्हें वेदश्रुतियों को पढ़ाया। इसी से मन्त्रदाता पुत्र पितृभाव को प्राप्त हुए। पुत्रों और पिताओं ने जो परस्पर एक-देसरे का पूजन किया, यह बात आप दोनों शुद्धात्मा पुरुषों को निश्चय ही पहले से ही ज्ञात रही होगी। देवताओं ने पृथ्वी पर पहले कुश बिछाकर उनपर पितरों के निमित्त तीन पिण्ड रखकर जो उनका पूजन किया था, इसका क्या कारण है ? पूर्वकाल में पितरों ने पिण्ड नाम कैसे प्राप्त किया ?

नर-नारायण बोले - मुने ! यह समुद्र से घिरी हुई पृथ्वी पहले एकार्णव के जल में डूबकर अदृश्य हो गयी थी। उस समय भगवान गोविन्द ने वराहरूप धारण करके शीघ्रता पूर्वक इसका उद्धार किया था। वे पुरुषोत्तम पृथ्वी को अपने स्थान पर स्थापित करके जल और कीचड़से लिपटे अंगों से ही लोकहित का कार्य करने के लिये उद्यत हुए। जब सूर्य दिन के मध्य में आ पहुँचे और तत्कालोचित्त नित्यकर्म का समय उपस्थित हुआ, तब भगवान ने अपनी दाढ़ों में लगी हुई मिट्टी के सहसा तीन पिण्ड बनाये। नारद ! फिर पृथ्वी पर कुश बिछाकर उन्होंने उन कुशों पर ही वे पिण्ड रख दिये। इसके बाद अपने ही उद्देश्य से उन पिण्डों पर विधिपूर्वक पितृपूजन का कार्य सम्पन्न किया। अपने ही विधान से प्रभु ने वे तीनों पिण्ड संकल्पित किये। फिर अपने शरीर की हीर गर्मी से उत्पन्न हुए स्नहयुक्त तिलों द्वारा अपसव्यभाव से उन पिण्डों का प्रोक्षण किया। तदनन्तर देवेश्वर श्रीहरि ने स्वयं ही पूर्वाभिमुख हो प्रार्थना की और धर्म-मर्यादा की स्थापना के लिये यह बात कही।

भगवान वराह कहते हैं - मैं ही सम्पूर्ण लोकों का स्रष्टा हूँ। मैं स्वयं ही जब पितरों की सृष्टि के लिये उद्यत हो पितृकार्य सम्बन्धी दूसरी विधियों का चिन्तन करने लगा, उसी क्षण मेरी दो दाढ़ों से ये तीन पिण्ड दखिण दिशा की ओर पृथ्वी पर गिर पड़े; अतः ये पिण्ड पितृस्वरूप ही हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यद्यपि नारदजी ब्रह्मा जी के ही पुत्र हैं तथापि दक्ष के शापवश उन्हें पुनः प्रजापति से जन्म ग्रहण करना पड़ा यह कथा हरिवंश में आयी है।
  2. अग्निष्वात्त आदि पित्गण देवताओं के ही पुत्र हैं। एक समय देवता दीर्घ काल तक असुरों के साथ युद्ध में लगे रहे, इसलिये उन्हें अपने पढ़े हुए वेद भूल गये। फिर उन पुत्रों से ही वेदों को पढ़कर देवताओं ने उनको पितृपद पर प्रतिष्ठित किया।

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।