महाभारत वन पर्व अध्याय 268 श्लोक 13-28
अष्टषष्टयधिकद्विशततम (268) अध्याय: वन पर्व ( द्रौपदीहरण पर्व )
द्रौपदीने कहा–मैं महान् बल एवं शक्तिसे सम्पन्त्र हूँ, तो भी सौवीरराज जयद्रथकी दृष्टिमें यहाँ दुर्बल-सी
१.खेती, व्यापार, दुर्ग, पुल बनाना, हाथी बाँधना, खानोंकी रक्षा, कर वसूलना और निर्जन प्रदेशोंको वसाना-ये आठ संधानकर्म तथा प्रभुभक्त्िा, मन्त्रशक्ति, उत्साहशक्ति, प्रभुसिद्धि, मन्त्र सिद्धि, उत्साहसिद्धि, प्रभूदय, और उत्साहोदय-ये नौ मिलाकर सत्रह गुण होते हैं । २. शौर्य,तेज, धृति, दाक्षिण्य, दान तथा ऐश्वर्य—ये छ: गुण हैं । प्रतीत हो रही हूँ । मुझे भगवान् पर विश्वास है, मैं जोर-जबर्दस्ती करनेसे यहाँ जयद्रथके सामने कभी दीन वचन नहीं बोल सकती । एक रथपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ होकर जिसकी खोजमें निकलेंगे, उस द्रौपदीको देवराज इन्द्र भी किसी तरह हरकर नहीं ले जा सकते । फिर दूसरे किसी दीन-हीन मनुष्यकी तो बिसात ही क्या है ? जब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले किरीटधारी अर्जुन शत्रुओंके मनोबलको नष्ट करते हुए मेरे लिेये रथमें स्थित हो तेरी सेनामें प्रवेश करेंगे, उस समय जैसे गर्मियोंमें आग घास-फूसको जलाती है, उसी प्रकार तुझे और तेरी सेनाको भस्म कर डालेंगे । अन्धक और वृष्णिवंशी वीरोंके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा महान् धनुर्धर समस्त केकयराजकुमार मेरे रक्षक हैं । ये सभी राजपुत्र हर्ष और उत्साहमें भरकर मेरा पता लगानेके लिये निकल पड़ेंगे । अर्जुनके गाण्डीव धनुषकी प्रत्यच्चासे छूटे हुए अत्यन्त वेगशाली बाण मेघोंके समान गर्जना करते हैं । वे भयानक बाण अर्जुनके हाथसे टकराकर अत्यन्त घोर शब्दकी सृष्टि करते हैं । जब तू गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए विशाल बाणसमूहों को टिडियोंकी भाँति वेगसे उड़ते देखेगा और जब अद्भुत पराक्रमसे शोभा पानेवाले वीर अर्जुनपर तेरी दृष्टि पड़ेगी, उस समय अपने इस कुकृत्यको याद करके तू स्वयं ही अपनी बुद्धि को धिक्कारेगा । जब गाण्डीव धनुष धारण करनेवाले अर्जुन शडग्ध्वनिके साथ दस्तानेकी आवाज फैलाते हुए बार बार बाण उठा-उठाकर तेरी छातीपर चोट करेंगे,उस समय तेरे मनकी दशा कैसी होगी १ ( इसे भी सोच ले) । अरे नीच ! जब भीमसेन हाथमें गदा लिये दौड़ेंगे और माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव अमर्षजनित क्रोधरूपी विष उगलते हुए ( तेरी सेनापर ) सब दिशाओंसे टूट पड़ेगें, तब उन्हें देखकर तू दीर्घकालतक संतापकी आगमें जलता रहेगा । यदि मैंने कभी मनसे भी अपने परम पूजनीय पतियोंका किसी तरह उल्लघंन नहीं किया हो, तो आज इस सत्यके प्रभावसे मैं देखूँगी कि पाण्डव तुझे जीतकर अपने वशमें करके जमीनपर घसीट रहे हैं । मैं जानती हूँ कि तू नृशंस है, अत: मुझे बलपूर्वक खींचकर ले जायगा । परंतु इससे मैं सम्भ्रम (घबराट) में नहीं पड़ सकूँगी मैंअपने पति कुरूवंशी वीर पाण्डवोंसे शीघ्र ही मिलूंगी और उनके साथ पुन: इसी काम्यकवनमें आकर रहूँगी । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! उस समय जयद्रथके साथी आश्रममें प्रविष्ट होकर द्रौपदीको पकड़ लेना चाहते थे । यह देख विशाल नेत्रोंवाली द्रौपदी उन्हें डाँटकर बोली-‘खबरदार, कोई मेरे शरीरका स्पर्श न करे ।’ फिर भयभीत होकर उसने अपने पुरोहित धौम्य मुनिको पुकारा । इतनेमें ही जयद्रथने आगे बढ़कर द्रौपदीकी ओढ़नीका छोर पकड़ लिया । परंतु द्रौपदीने उसे जोरका धक्का दिया । उसका धक्का लगते ही पापी जयद्रथका शरीर जड़से कटे हुए वृक्षकी भॉंति पृथ्वीपर गिर पड़ा । फिर बडे वेगसे उठकर उसने राजकुमारी द्रौपदीको पकड़ लिया । तब बार-बार लम्बी सांसे छोड़ती हुई द्रौपदीने धौम्य-मुनिके चरणोमें प्रणाम किया, किंन्तु वह जयद्रथके द्वारा खींची जानेके कारण बाध्य होकर उसके रथपर बैठ गयी । तब धौम्यने कहा-जयद्रथ ! तू क्षत्रियोंके प्राचीन धर्मपर दृष्टिपात कर । महारथी पाण्डवोंको परास्त किये बिना इसे ले जाने का तुझे कोई अधिकार नहीं है । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! ऐसा कहकर धौम्य मुनि हरकर ले जायी जाती हुई यशस्विनी राजकुमारी द्रौपदीके पीछे-पीछे पैदल सेनाके बीचमें होकर चलने लगे ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत द्रोपदीहरणपर्वमें दो सौ अड़सठवां अध्याय पूरा हुआ ।
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