महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-21
चतुर्दशो (14) अध्याय: स्त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )
पाण्डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्धारी को व्यासजी का समझाना
वैशम्पायन उवाच वैशम्पायनजी कहते हैं – राजन् तदनन्तर धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर वे कुरुवंशी गण्डव सभी भाई भगवान् श्रीकृष्णके साथ गान्धारीके पास गये । पुत्रशोकसे पीडित हुई गान्धारीको जब यह मालूम हुआ कि युधिष्ठिर अपने शत्रुओंका संहार करके मेरे पास आये हैं, तब उनकी सती-साध्वी देवीने उन्हें शाप देनेकी इच्छा की । पाण्डवोंके प्रति गान्धारीके मनमें पापापूर्ण संकल्प है, इस बातको सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास पहले ही जान गये थे । उनके उस अभिप्रायको जानकर वे मनके समान वेगशाली महर्षि गड्गाजीके पवित्र एवं सुगन्धित जलसे आचमन करके शीघ्र ही उस स्थानपर आ पहुँचे । वे दिव्य दृष्टिसे तथा अपने मनको समस्त प्राणियोंके साथ एकाग्र करके उनके आन्तरिक भावको समझ लेते थे । अत: हितकी बात बतानेवाले वे महातपस्वी व्यास समय-समय पर अपनी पुत्रवधू के पास जा पहुँचे और शाप का अवसर उपस्थित करते हुए इस प्रकार बोले- ‘गान्धरराजकुमारी ! शान्त हो जाओ । तुम्हें पाण्डुपुत्र युघिष्ठिरपर क्रोध नहीं करना चाहिये । अभी-अभी जो बात मुँहसे निकालना चाहती हो, उसे रोक लो और मेरी यह बात सुनो । ‘गत अठारह दिनोंमें विजयकी अभिलाषा रखनेवाला तुम्हारा पुत्र प्रतिदिन तुमसे जाकर कहता था कि ‘मॉं ! मैं शत्रुओंके साथ युद्ध करने जा रहा हूँ । तुम मेरे कल्याणके लिये आशीर्वाद दो’ । ‘इस प्रकार जब विजयाभिलाषी दुर्योधन समय-समयपर तुमसे प्रार्थना करता था, तब तुम सदा यही उत्तर देती थीं कि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है’ । ‘गान्धारी !* तुमने बातचीत के प्रसडग में भी पहले कभी झूठ कहा हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है तथा तुम सदा प्राणियोंके हितमें तत्पर रहती आयी हो । ‘राजाओंके इस घोर संग्रामसे पार होकर पाण्डवोंनेजो युद्धमें विजय पायी है, इससे नि:संदेह यह बात सिद्ध हो गयी कि ‘धर्मका बल सबसे अधिक है’ । ‘धर्मज्ञे ! तुम तो पहले बड़ी क्षमाशील थी । अब क्यों नहीं क्षमा करती हो ? अधर्म छोड़ो, क्योंकि जहॉं धर्म है, वहीं विजय है ।‘मनस्विनी गान्धारी ! अपने धर्म तथा की हुई बातका स्मरण करके क्रोधको रोको । सत्यवादिनि ! अब फिर तुम्हारा ऐसा बर्ताव नहीं होना चाहिये’ । गान्धार्युवाच गान्धारी बोली- भगवन् ! मैं पाण्डवों के प्रति कोई दुर्भाव नहीं रखती और न इनका विनाश ही चाहती हूँ; परंतु क्या करूँ ? पुत्रोंके शोकसे मेरा मन हठात् व्याकुल-सा हो जाता है । कुन्तीके ये बेटे जिस प्रकार कुन्तीके द्वारा रक्षणीय हैं, उसी प्रकार मुझे भी इनकी रक्षा करनी चाहिये । जैसे आप इनकी रक्षा चाहते हैं, उसी प्रकार महाराज धृतराष्ट्रका भी कर्तव्य है कि इनकी रक्षा करें । कुरुकुलका यह संहार तो दुर्योधन, मेरे भाई शकुनि, कर्ण तथा दु:शासनके अपराधसे ही हुआ है । इसमें न तो अर्जुनका अपराध है और न कुन्तीपुत्र भीमसेनका । नकुल-सहदेव और युघिष्ठिरको भी कभी इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता । कौरव आपसमें ही जूझकर मारकाट मचाते हुए अपने दूसरे साथियोंके साथ मारे गये हैं; अत: इसमें मुझे अप्रिय लगनेवाली कोई बात नहीं है । परंतु महामना भीमसेनने गदायुद्धके लिये दुर्योधनको बुलाकर श्रीकृष्णके देखते-देखते उसके प्रति जो बर्ताव किया है, वह मुझे अच्छा नहीं लगा । वह रणभूमिमें अनेक प्रकार-के पैंतरे दिखाता हुआ विचर रहा था; अत: शिक्षामें उसे अपनेसे अधिक जान भीमने जो उसकी नाभिसे नीचे प्रहार किया, इनके इसी बर्तावने मेरे क्रोधको बढ़ा दिया है । धर्मज्ञ महात्माओंने गदायुद्धके लिये जिस धर्मका प्रतिपादन किया है, उसे शूरवीर योद्धा रणभूमिमें किसी तरह अपने प्राण बचानेके लिये कैसे त्याग सकते हैं ?
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें गान्धारीकी सान्तवनाविषयक चौदहवॉं अध्याय पूरा हुआ ।
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