महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 56 श्लोक 18-33

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षट्पञ्चाशत्तम (56) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद

राजेन्द्र! ऋषियों के लिये भी सत्य ही परम धन है। इसी प्रकार राजाओं के लिये सत्य से बढ़कर दूसरा कोई ऐसा साधन नहीं है, जो प्रजावर्ग में उसके प्रति विश्वास उत्पन्न करा सके। जो राजा गुणवान्, शीलवान्, मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, कोमलस्वभाव, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय, देखने में प्रसन्नमुख और बहुत देने वाला उदारचित्त है, वह कभी राजलक्ष्मी से भ्रष्ट नहीं होता। कुरूनन्दन! तुम सभी कार्यों में सरलता एवं कोमलता का अवलम्बन करना, परंतु नीतिशास्त्र की आलोचना से यह ज्ञात होता है कि अपने छिद्र, अपनी मन्त्रणा तथा अपने कार्य कौशल इन तीन बातों को गुप्त रखने में सरलता का अवलम्बन करना उचित नहीं है। जो राजा सदा सब प्रकार से कोमलतापूर्वक बर्ताव करने वाला ही होता है, उसकी आज्ञा का लोग उल्लघंन कर जाते है, और केवल कठोर बर्ताव करने से भी सब लोग उद्विग्र हो उठते है; अतः तुम आवश्यकतानुसार कठोरता और कोमलता दोनों का अवलम्बन करो। दाताओं में श्रेष्ठ बेटा पाण्डुकुमार युधिष्ठिर! तुम्हें ब्राह्मणों को कभी दण्ड नहीं देना चाहिये, क्योंकि संसार में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। राजेन्द्र! कुरूनन्दन! महात्मा मनु ने अपने धर्मशास्त्रों में दो श्लोकों का गान किया है, तुम उन दोनों को अपने हद्य में धारण करो। अग्नि जल से, क्षत्रिय ब्राह्मण और लोहा पत्थर से प्रकट हुआ है। इनका तेज अन्य सब स्थानों पर तो अपना प्रभाव दिखाता है; परंतु अपने को उत्पन्न करने वाले कारण से टक्कर लेने पर स्वयं ही शान्त हो जाता है।

जब लोहा पत्थर पर चोट करता है, आग जल को नष्ट करने लगती है और क्षत्रिय ब्राह्मण से द्वेष करने लगता है, तब ये तीनों ही दुख उठाते है। अर्थात् ये दुर्बल हो जाते है। महाराज! ऐसा सोचकर तुम्हें ब्राह्मणों को सदा नमस्कार ही करना चाहिये; क्योंकि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजित होने पर भूतल के ब्रह्म को अर्थात वेद को धारण करते है। पुरूषसिंह! यद्यपि ऐसी बात है, तथापि यदि ब्राह्मण भी तीनों लोकों का विनाश करने के लिये उद्यत हो जायँ तो ऐसे लोगों को अपने बाहु-बल से परास्त करके सदा नियन्त्रण में ही रखना चाहिये। तात! नरेश्वर! इस विषय में दो श्लोक प्रसिद्ध है, जिन्हें पूर्वकाल में महर्षि शुक्राचार्य ने गाया था। महाराज! तुम एकाग्रचित होकर उन दोनों श्लोक को सुनो। वेदान्त का पारन्गत विद्वान ब्राह्मण ही क्यों न हो; यदि वह शस्त्र उठाकर युद्ध में सामना करने के लिये आ रहा हो तो धर्मपालन की इच्छा रखने वाले राजा को अपने धर्म के अनुसार ही युद्ध करके उसे कैद कर लेना चाहिये। जो राजा उसके द्वारा नष्ट होते हुए धर्म की रक्षा करता है, वह धर्मज्ञ है। अतः उसे मारने से वह धर्म का नाशक नहीं माना जाता। वास्तव में क्रोध ही उनके क्रोध से टक्कर लेता है। नरश्रेष्ठ! यह सब होने पर भी ब्राह्मणों की तो सदा रक्षा ही करनी चाहिये; यदि उनके द्वारा अपराध बन गये हो तो उन्हें प्राणदण्ड न देकर अपने राज्य की सीमा से बाहर छोड देना चाहिये। प्रजानाथ! इनमें कोई कलकिंत हो तो उस पर भी कृपा ही करनी चाहिये। ब्रह्महत्या, गुरूपत्नीगमन, भू्रणहत्या तथा राजद्रोह का अपराध होने पर भी ब्राह्मण को देश से निकाल देने का ही विधान है- उसे शारीरिक दण्ड कभी नहीं देना चाहिये।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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