जसवंतसिंह

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लेख सूचना
जसवंतसिंह
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 433
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक दशरथ शर्मा

जसवंतसिंह (प्रथम) जोधपुर के महाराज गजसिंह के तीन पुत्र थे, अमरसिंह, जसवंतसिंह और अचलसिंह। अचलसिंह का देहांत बचपन में ही हो गया। अमरसिंह वीर किंतु बहुत क्रोधी थे इसलिये गजसिंह ने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह को ही गद्दी के उपयुक्त समझा। 25 मई, 1638 के दिन बारह बर्ष का जसवंत गद्दी पर बैठा।

प्राय: राज्य के आरंभ काल से ही जसवंतसिंह शाही सेना में रहा। सन्‌ 1642 में उसने शाही सेना के साथ ईरान के लिये प्रयाण किया। एक साल बाद वह वापस लौटा। सन्‌ 1648 में ईरान के शाह अब्बास ने 50,000 सेना और तोपें लेकर कंधार को घेर लिया। कुछ समय के बाद किला उसके हाथ आया। जसवंतसिंह किले पर घेरा डालनेवाली शहजादे औरंगजेब की फौज में में संमिलित था। औरंगजेब किला लेने में असमर्थ रहा। इसी बीच जसवंतसिंह के मनसव में अनेक बार बृद्धि हुई और सन्‌ 1655 में उसे महाराजा की पदवी मिली।

सन्‌ 1657 में बादशाह शाहजहाँ बीमार हुआ और उसके पुत्रों में राज्याधिकार के लिये युद्ध शुरू हो गया। दारा ने बादशाह से कहकर जसंवतसिंह का मनसब 7,000 ज़ात और 7,000 सवार करवा दिया और उसे एक लाख रुपये और मालवे की सूबेदारी देकर औरंगजेब के विरुद्ध भेजा। दूसरी शाही सेना कासिमखाँ के सेनापतित्व में उससे आ मिली। इसी बीच औरंगजेब ने शाहजादा मुराद को अपनी ओर कर लिया। धर्मत नाम के स्थान पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ। कोटा का राव मुकुंदसिंह, उसके तीन भाई, शाहपुरा का सुजानसिंह सीसोदिया, अर्जुन गोड़, दयालदास झाला, मोहनसिंह हाड़ा आदि अनेक राजा और सरदार उसे साथ थे। हरावल का नायक कासिमखाँ था और जसवंतसिंह, स्वयं 2,000 राजपूतों के बीच केंद्र में था। उनमें से कई राजपूत सरदार तो प्रारंभिक आक्रमण में ही काम आए। टोड़े का रायसिंह, बुंदेला सुजानसिंह आदि भाग निकले। जसवंतसिंह अवशिष्ट राजपूतों के साथ वीरता से लड़ता हुआ औरंगजेब के पास तक पहुँचा किंतु इसी बीच वह बुरी तरह घायल हुआ। युद्ध में पराजय को निश्चित समझ उसके साथ के राजपूत जसवंतसिंह को बलपूर्वक युद्ध से बाहर ले गए और उसे जोधपुर लौटना पड़ा।

धर्मत के बाद औरंगजेब ने दारा को सामूगढ़ की लड़ाई में हराया, और 22 जुलाई, 1658 को शाहजहाँ को नजरकैद कर औरंगजेब गद्दी पर बैठा। उसी साल जसवंतसिंह ने औरंगजेब की अधीनता स्वीकार की, किंतु मन से वह उसके विरुद्ध था। अत: कोड़े में जब शाहशुजा और औरंगजेब का युद्ध हुआ तो औरंगजेब की फौज का काफी नुकसान कर वह जोधपुर लौट गया। किंतु शाहशुजा युद्ध में हार गया। औरंगजेब को बहुत क्रोध आया, फिर भी मिर्जा राजा जयसिंह के बीच में पड़ने से और जसवंतसिंह से अच्छा संबंध बनाए रखने में ही अपना हित समझकर औरंगजेब ने महाराजा को क्षमा कर दिया।

1659 में जसवंतसिंह गुजरात का सूबेदार नियुक्त हुआ, किंतु कुछ समय के बाद औरंगजेब ने उस स्थान पर महावतखाँ की नियुक्ति की। शिवाजी की बढ़ती शक्ति को देखकर औरंगजेब ने शाइस्ताखाँ को उसके विरुद्ध भेजा। उसने पूने में रहना शुरु किया और जसवंतसिंह सिंहगढ़ के मार्ग में ठहरा। शाइस्ताखाँ पर रात्रि के समय शिवाजी के आक्रमण की कथा प्रसिद्ध है। शिवाजी के विरुद्ध जसवंतसिंह ने कोई विशेष सफलता प्राप्त न की। बादशाह ने उसे दिल्ली वापस बुला लिया और उसके स्थान पर दिलेरखाँ और मिर्जा राजा जयसिंह की नियुक्ति की। किंतु सन्‌ 1678 में फिर उसकी नियुक्ति दक्षिण में हुई और उसके उद्योग से मुगलों और मरहटों के बीच कुछ समय के लिये संधि हो गई। सन्‌ 1670 में वह दुबारा गुजरात का सूबेदार नियुक्त हुआ और सन्‌ १६७३ में बादशाही फरमान मिलने पर काबुल के लिये रवाना हुआ। 28 नवंबर, 1738 को उसका देहांत जमुर्रद में हुआ।

महाराजा जसवंतसिंह वीर ही नहीं दानशील और विद्यानुरागी भी था। उसके रचित ग्रंथों में भाषाभूषण, अपरीक्षसिद्धांत, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिद्धांतबोध, सिद्धांतसार और प्रबोधचंद्रोदय आदि प्रसिद्ध हैं। सूरतमिश्र, नरहरिदास, और नवीनकवि उसकी सभा के रत्न थे। जसवंतसिंह का हृदय हिंदुत्व के प्रेम से परिपूर्ण था और उसके सदुद्योग और निरुद्योग से भी हिंदू राजाओं को पर्याप्त सहायता मिली। औरंगजेब भी इस बात स अपरिति न था। यह प्रसिद्ध है कि उसके मरने पर बादशाह ने कहा था, 'आज कुफ का दरवाजा टूट गया'। जसंवतसिंह के लिये हिंदूमात्र के हृदय में संमान था और इसी कारण जब औरंगजेब ने उसकी मृत्यु के बाद जोधपुर को हथियाने और कुमारों को मुसलमान बनाने का प्रयत्न किया तो समस्त राजस्थान में विद्वेषाग्नि भड़क उठी और राजपूत युद्ध का आरंभ हो गया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ