महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 229 श्लोक 1-14

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एकोनत्रिशदधिद्विशततम (229) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिशदधिद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


जैगीषव्यश का असित-देवल को समत्वकबुद्धि का उपदेश

युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! कैसे शील, किस तरह के आचरण, कैसी विद्या और कैसे पराक्रम से युक्तण होनेपर मनुष्यठ प्रकृति से परे अविनाशी ब्रह्रापद को प्राप्तश होता है ? । भीष्मर जी ने कहा – युधिष्ठिर ! जो पुरूष मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर मोक्षोपयोगी धर्मो के पालन में संलग्न रहता है, वही प्रकृति से परे अविनाशी ब्रह्रापद को प्राप्तर होता है । भारत ! इस विषय में भी जैगीषव्यन और असित देवल मुनिका संवादरूप यह पुरातन इतिहास उदाहरण के तौरपर प्रस्तु्त किया जाता है । एक बार सम्पूनर्ण धर्मों को जाननेवाले शास्त्रइवेत्ताद, महाज्ञानी और क्रोध एवं हर्ष से रहित जैगीषव्य् मुनि से असित देवल ने इस प्रकार पूछा । देवल बोले – मुनिवर ! यदि आपको कोई प्रणाम करे, तो आप अधिक प्रसन्नम नहीं होते और निन्दाू करें तो भी आप उस पर क्रोध नहीं करते, यह आपकी बुद्धि कैसी है ? कहाँसे प्राप्तअ हुई है ? और आपकी इस बुद्धि का परम आश्रय क्या् है ? । भीष्माजी कहते हैं – राजन् ! देवलके इस प्रकार प्रश्नम करने पर महातपस्वीि जैगीषव्यत ने उनसे इस प्रकार संदेहरहित, प्रचुरअर्थ का बोधक, पवित्र और उत्तअम वचन कहा । जैगीषव्य बोले - मुनिश्रेष्ठक ! पुण्य्कर्म करनेवाले महापुरूषों कोजिसका आश्रय लेने सेउत्तकम गति, उत्क‍र्ष की चरम सीमा और परम शान्ति प्राप्त होती है, उस श्रेष्ठर बुद्धि का मैं तुमसे वर्णन करता हॅू । देवल ! महात्माो पुरूषों की कोई निन्दात करे या सदा उनकी प्रशंसा करे अथवा उनके सदाचार तथा पुण्यक कर्मो पर पर्दा डाले, किंतु वे सबके प्रति एक सी ही बुद्धि रखते हैं । उन मनीषी पुरूषों से कोई कटु वचन कह दे तो वे उस कटुवादी पुरूष को बदले में कुछ नहीं कहते । अपना अहित करनेवाले का भी हित ही चाहते हैं तथा जो उन्हेंो मारता है, उसे भी वे बदले में मारना नहीं चाहते हैं । जो अभी सामने नहीं आयी है या भविष्यय में होनेवाले है, उसके लिये वे शोक या चिन्ता नहीं करते हैं । वर्तमान समय में जो कार्य प्राप्त हैं, उन्हीं को वे करते हैं । जो बातें बीत गयी हैं, उनके लिये भी उन्हेंम शोक नहीं होता है और वे किसी बात की प्रतिज्ञा नहीं करते हैं । देवल ! यदि कोई कामना मन में लेकर किन्हींर विशेष प्रयोजनों की सिद्धि के लिये पूजनीय पुरूष उनके पास आ जायॅ तो वे उत्त म व्रत का पालन करनेवाले शक्तिशाली महात्माक यथाशक्ति उनके कार्य साधन की चेष्टार करते हैं । उनका ज्ञान परिपक्वर होता है ।वे महाज्ञानी, क्रोध को जीतनेवाले और जितेन्द्रिय होते हैं तथा मन, वाणी और शरीर से कभी किसी का अपराध नहीं करते हैं । उनके मन में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या नहीं होती । वे कभी हिंसा नहीं करते तथा वे धीर पुरूष दूसरों की समृद्धियों से कभी मन ही मन जलते नहीं हैं । वे दूसरों की न तो निन्दा करते हैं और न अधिक प्रशंसा ही । उनकी भी कोई निन्दाह या प्रशंसा करे तो उनके मन में कभी विकार नहीं होता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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