महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-17

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चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

बन्धन-मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले शरीर, वाणी और मन द्वारा किये जाने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन उमाने पूछा- भगवन्! सर्वभूतेश्वर देवासुरवन्दित देव! विभो! अब मुझे धर्म और अधर्म का स्वरूप बताइये, जिससे उनके विषय में मेरा संदेह दूर हो जाय मनुष्य मन, वाणी और क्रिया- इन तीन प्रकार के बन्धनों से सदा बँधता है और फिर उन बन्धनों से मुक्त होता है। प्रभो! किस शील-स्वभाव से, किस बर्ताव से, कैसे कर्म से तथा किन सदाचारों अथवा गुणों द्वारा मनुष्य बँधते, मुक्त होते एवं स्वर्ग में जाते हैं।

श्रीमहेश्वर ने कहा- धर्म ओर अर्थ के तत्व को जानने वाली, सदा धर्म में तत्पर रहने वाली, इन्द्रियसंयम परायणे देवि! तुम्हारा प्रश्न समसत प्राणियों के लिये हितकर तथा बुद्धि को बढ़ाने वाला है, इसका उत्तर सुनो।। जो मनुष्य धर्म से उपार्जित किये हुए धन को भोगते हैं, सम्पूर्ण आश्रमसम्बन्धी चिन्हों से बिलग रहकर भी सत्य, धर्म में तत्पर रहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं। जिनके सब प्रकार के संदेह दूर हो गय हैं, जो प्रलय और उत्पत्ति के तत्व को जानने वाले, सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा हैं, वे महात्मा न तो धर्म से बँधते हैं और न अधर्म से। जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी की हिंसा नहीं करते हैं और जिनकी आसक्ति सर्वथा दूर हो गयी है, वे पुरूष कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। जो कहीं आसक्त नहीं होते, किसी के प्राणों की हत्या से दूर रहते हैं तथा जो सुशील और दयालु हैं, वे भी कर्मों के बन्धनों में नहीं पड़ते, जिनके लिये शत्रु और प्रिय मित्र दोनों समान हैं, वे जितेन्द्रिय पुरूष कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। जो सब प्राणियों पर दयसा करने वाले, सब जीवों के विश्वास पात्र तथा हिंसामय आचरणों को त्याग देने वाले हैं, वे मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। जो दूसरों के धन पर ममता नहीं रखते, परायी स्त्री से सदा दूर रहते और धर्म के द्वारा प्राप्त किये अन्न का ही भोजन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो मानव परायी स्त्री को माता, बहिन और पुत्री के समान समझकर तदनुरूप बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं। जो सदा अपने ही धन से संतुष्ट रहकर चोरी-चमारी से अलग रहते हैं तथा जो अपने भाग्य पर ही भरोसा रखकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो अपनी ही स्त्री में अनुरक्त रहकर ऋतुकाल में ही उसके साथ समागम करते हैं और ग्राम्य सुख भोगों में आसक्त नहीं होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो अपने सदाचार के द्वारा सदा ही परायी स्त्रियों की ओर से अपनी आँखें बंद किये रहते हैं, वे जितेन्द्रिय और शीलपरायण मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। यह देवताओं का बनाया हुआ मार्ग है। राग और द्वेष को दूर करने के लिये इस मार्ग की प्रवृत्ति हुई है। अतः साधारण मनुष्यों तथा विद्वान् पुरूषों को भी सदा ही इसका सेवन करना चाहिये। यह दान, धर्म और तपस्या से युक्त तथा शील, शौच और दयामय मार्ग है। मनुष्य को जीविका एवं धर्म के लिये सदा ही इस मार्ग का सेवन करना चाहिये। जो स्वर्गलोक में निवास करना चाहता हो, उनके लिये सेवन करने योग्य इससे बढ़कर उत्कृष्ट मार्ग नहीं है


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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