महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 29-34

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद


141 भ्राजिष्णुः- एकरस प्रकाशस्वस्प, 142 भोजनम्- ज्ञानियों द्वारा भोगने योग्य अमृतस्वरूप, 143 भोक्ता- पुरूषरूप से भोक्ता, 144 सहिष्णुः- सहनशील, 145 जगदादिजः- जगत् के आदि में हिरण्यगर्भ रूप से स्वयं उत्पन्न होने वाले, 146 अनघः- पापरहित, 147 विजयः- ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि गुणों में सबसे बढ़कर, 148 जेता-स्वभाव से ही समस्त भूतों को जीतने वाले, 149 विश्वयोनिः- सबके कारणरूप, 150 पुनर्वसुः- पुनः-पुनः अवतार-शरीरों में निवास करने वाले। 151 उपेन्द्रः- इन्द्र के छोटे भाई, 152 वामनः- वामनरूप से अवतार लेने वाले, 153 प्रांसुः- तीनों लोकों को लाँघने के लिये त्रिविक्रमरूप से ऊँचे होने वाले, 154 अमोघः- अव्यर्थ चेष्टा वाले, 155 शुचिः- स्मरण, स्तुति और पूजन करने वालों को पवित्र कर देने वाले, 156 ऊर्जितः- अत्यन्त बलशाली, 147 अतीन्द्रः- स्वयंसिद्ध ज्ञान-ऐश्वर्यादि के कारण इन्द्र से भी बढ़े-चढ़े हुए, 158 संग्रहः- प्रलय के समय सबको समेट लेने वाले, 159 सर्गः- सृष्टि के कारणरूप, 160 धृतात्मा- जन्मादि से रहित रहकर स्वेचछा से स्वरूप धारण करने वाले, 161 नियमः- प्रजा को अपने-अपने अधिकारों में नियमित करने वाले, 162 यमः- अन्तःकरण में स्थित होकर नियमन करने वाले।। 30।। 163 वेद्यः- कल्याण की इच्छा वालों के द्वारा जानने योग्य, 164 वैद्यः- सब विद्याओं के जानने वाले, 165 सदायोगी- सदा योग में स्थित रहने वाले, 166 वीरहा- धर्म की रक्षा के लिये असुर योद्धाओं को मार डालने वाले, 167 माधवः- विद्या के स्वामी, 168 मधुः- अमृत की तरह सबको प्रसन्न करने वाले, 169 अतीन्द्रियः- इन्द्रियों से सर्वथा अतीत, 170 महामायः- मायावियों पर भी माया डालने वाले, महान् मायावी, 171 महोत्साहः- जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये तत्पर रहने वाले परम उत्साही, 172 महाबलः- महान् बलशाली। 173 महाबुद्धिः- महान् बुद्धिमान्, 174 महावीर्यः- महान् पराक्रमी, 175 महाशक्तिः- महान् सामथ्र्यवान्, 176 महाद्युतिः- महान् कान्तिमान्, 177 अनिर्देश्यवपुः- वर्णन करने में न आने योग्य स्वरूप, 178 श्रीमान्- ऐश्वर्यवान्, 179 अमेयात्मा- जिसका अनुमान न किया जा सके ऐसे आत्मावाले, 180 महाद्रिधृक्- अमृतमन्थन और गोरक्षण के समय मन्दराचल और गोवर्धन नामक महान् पर्वतों को धारण करने वाले। 181 महेष्वासः- महान् धनुषवाले, 182 महीभर्ता- पृथ्वी को धारण करने वाले, 183 श्रीनिवासः- अपने वक्षःस्थल में श्री को निवास देने वाले, 184 सतां गतिः- सत्पुरूषों के परम आश्रय, 185 अनिरूद्धः- किसी के भी द्वारा न रूकने वाले, 186 सुरानन्दः- देवताओं को आनन्दित करने वाले, 187 गोविन्दः- वेदवाणी के द्वारा अपने को प्राप्त करा देने वाले, 188 गोविदां पतिः-वेदवाणी को जानने वालों के स्वामी। 189 मरीचिः- तेजस्वियों के भी परम तेजरूप, 190 दमनः- प्रमाद करने वाली प्रजा को यम आदि के रूप से दमन करने वाले, 191 हंसः- पितामह ब्रह्मा को वेद का ज्ञान कराने के लिये हंसरूप धारण करने वाले, 192 सुपर्णः- सुन्दर पंखवाले गरूड़स्वरूप, 193 भुजगोत्तमः-सर्पों में श्रेष्ठ शेषनागरूप, 194 हिरण्यनाभाः- सुवर्ण के समान रमणीय नाभिवाले, 195 सुतपाः- बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप से सुन्दर तप करने वाले, 196 पद्मनाभः- कमल के समान सुन्दर नाभिवाले, 197 प्रजापतिः- सम्पूर्ण प्रजाओं के पालनकर्ता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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