महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 35-41

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-41 का हिन्दी अनुवाद


198 अमृत्युः- मृत्यु से रहित, 199 सर्वदृक्- सब कुछ देखने वाले, 200 सिंहः- दुष्टों का विनाश करने वाले, 201 संधाता- प्राणियों को उनके कर्मों के फलों के संयुक्त करने वाले, 202 सन्धिमान्- सम्पूर्ण यज्ञ और तपों के फलों को भोगने वाले, 203 स्थिरः- सदा एक रूप, 204 अजः- दुर्गुणों को दूर हटा देने वाले, 205 दुर्मर्षणः-किसी से भी सहन नहीं किये जा सकने वाले, 206 शास्ता- सब पर शासन करने वाले, 207 विश्रुतात्मा- वेदशास्त्रों में प्रसिद्ध स्वरूपवाले, 208 सुरारिहा- देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले। 209 गुरूः- सब विद्याओं का उपदेश करने वाले, 210 गुरूतमः- ब्रह्मा आदि को भी ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले, 211 धाम- सम्पूर्ण जगत् के आश्रय, 212 सत्यः- सत्यस्वरूप, 213 सत्यपराक्रमः- अमोघ पराक्रमवाले, 214 निमिषः- योगनिद्रा से मुँदे हुए नेत्रों वाले, 215 अनिमिषः- मत्स्यरूप से अवतार लेने वाले, 216 स्त्रग्वी-वैजयन्तीमाला धारण करने वाले, 217 वाचस्पतिरूदारधीः- सारे पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाली बुद्धि से युक्त समस्त विद्याओं के पति। 218 अग्रणीः- मुमुक्षुओं को उत्तम पद पर ले जाने वाले, 219 ग्रामणीः- भूतसमुदाय के नेता, 220 श्रीमान्- सबसे बढ़ी-चढ़ी कान्तिवाले, 221 न्यायः- प्रमाणों के आश्रयभूत तर्क की मूर्ति, 222 नेता- जगत् रूप यन्त्र को चलाने वाले, 223 समीरणः- श्वासरूप से प्राणियों से चेष्ठा कराने वाले, 224 सहस्त्रमूर्धा-हजार सिरवाले, 225 विश्वात्मा- विश्व के आत्मा, 226 सहस्त्राक्षः- हजार आँखों वाले, 227 सहस्त्रपात्- हजार पैरों वाले। 228 आवर्तनः- संसारचक्र को चलाने के स्वभाव वाले, 229 निवृत्तात्मा- संसारबन्धन से नित्य मुक्तस्वरूप, 230 संवृतः- अपनी योगमाया से ढके हुए, 231 सम्प्रदमर्दनः- अपने रूद्र आदि स्वरूप से सबका मर्दन करने वाले, 232 अहःसंवर्तकः- सूर्यरूप से सम्यक्तया दिन के प्रवर्तक, 233 वन्हिः- हवि को वहन करने वाले अग्निदेव, 234 अनिलः- प्राणरूप से वायुस्वरूप, 235 धरणीधरः- वराह और शेषरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले। 236 सुप्रसादः- शिशुपालादि अपराधियों पर भी कृपा करने वाले, 237 प्रसन्नात्मा- प्रसन्न स्वभाव वाले, 238 विश्वधृक्- जगत् को धारण करने वाले, 239 विश्वभुक्- विश्व का पालन करने वाले, 240 विभुः- सर्वव्यापी, 241 सत्कर्ता- भक्तों का सत्कार करने वाले, 242 सत्कृतः- पूजितों से भी पूजित, 243 साधुः- भक्तों के कार्य साधने वाले, 244 जन्हुः- संहार के समय जीवों का लय करने वाले, 245 नारायणः- जल में शयन करने वाले, 246 नरः- भक्तों को परमधाम में ले जाने वाले। 247 असंख्येयः- जिसके नाम और गुणों की संख्या न की जा सके, 248 अप्रमेयात्मा-किसी से भी मापे न जा सकने वाले, 249 विशिष्टः- सबसे उत्कृष्ट, 250 शिष्टकृत्- श्रेष्ठ बनाने वाले, 251 शुचिः- परम शुद्ध, 252 सिद्धार्थः- इच्छित अर्थ को सर्वथा सिद्ध कर चुकने वाले, 253 सिद्धसंकल्पः- सत्य-संकल्पवाले, 254 सिद्धिदः- कर्म करने वालों को उनके अधिकार के अनुसार फल देने वाले, 255 सिद्धिसाधनः- सिद्धिरूप क्रिया के साधक। 256 वृषाही- द्वादशाहादि यज्ञों को अपने में स्थित रखने वाले, 257 वृषभः- भक्तों के लिये इच्छित वस्तुओं की वर्षा करने वाले, 258 विष्णुः- शुद्ध सत्वमूर्ति, 259 वृषपर्वा- परमधाम में आरूढ़ होने की इच्छा वालों के लिये धर्मरूप सीढि़यों वाले, 260 वृषोदरः- अपने उदर में धर्म को धारण करने वाले, 261 वर्धनः- भक्तों को बढ़ाने वाले, 262 वर्धमानः- संसाररूप से बढ़ने वाले, 263 विविक्तः- संसार से पृथक् रहने वाले, 264 श्रुतिसागरः- वेदरूप जल के समुद्र।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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