महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 49-55
एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
327 स्कन्दः- स्वामिकार्तिकेयरूप, 328 स्कन्दधरः- धर्मपथ को धारण करने वाले, 329 धुर्यः- समस्त भूतों के जन्मादिरूप धुर को धारण करने वाले, 330 वरदः- इच्छित वर देने वाले, 331 वायुवाहनः- सारे वायुभेदों को चलाने वाले, 332 वासुदेवः- सब भूतों में सर्वात्मारूप से बसने वाले, 333 बृहद्भानुः- महान् किरणों से युक्त एवं सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाले सूर्यरूप, 334 आदिदेवः- सबके आदिकारण देव, 335 पुरंदरः-असुरों के नगरों का ध्वंस करने वाले। 336 अशोकः- सब प्रकार के शोक से रहित, 337 तारणः- संसारसागर से तारने वाले, 338 तारः- जन्म-जरा-मृत्युरूप भय से तारने वाले, 339 शूरः- पराक्रमी, 340 शौरिः- शूरवीर श्रीवसुदेवजी के पुत्र, 341 जनेश्वरः- समस्त जीवों के स्वामी, 342 अनुकूलः- आत्मारूप होने से सबके अनुकूल, 343 शतावर्तः-धर्मरक्षा के लिये सैकड़ों अवतार लेने वाले, 344 पद्मी- अपने हाथ में कमल धारण करने वाले, 345 पद्मनिभेक्षणः- कमल के समान कोमल दृष्टिवाले। 346 पद्मनाथः- हृदय-कमल के मध्य निवास करने वाले, 347 अरविन्दाक्षः- कमल के समान आँखों वाले, 348 पद्मगर्भः- हृदयकमल में ध्यान करने योग्य, 349 शरीरभृत्- अन्नरूप से सबके शरीरों का भरण करने वाले, 350 महर्द्धिः-महान् विभूतिवाले, 351 ऋद्धः- सबमें बढे़-चढ़े, 352 वृद्धात्मा- पुरातन स्वरूप, 353 महाक्षः- विशाल नेत्रों वाले, 354 गरूडध्वजः- गरूड के चिन्ह से युक्त ध्वजावाले। 355 अतुलः- तुलनारहित, 356 शरभः- शरीरों को प्रत्यगात्मरूप से प्रकाशित करने वाले, 357 भीमः- जिससे पापियों को भय हो ऐसे भयानक, 358 समयज्ञः- समभावरूप यज्ञ से सम्पन्न, 359 हविर्हरिः- यज्ञों में हविर्भाग को और अपना स्मरण करने वालों के पापों को हरण करने वाले, 360 सर्वलक्षणलक्षण्यः- समस्त लक्षणों से लक्षित होने वाले, 361 लक्ष्मीवान्- अपने वक्षःस्थल में लक्ष्मीजी को सदा बसाने वाले, 362 समितिन्जयः- संग्रामविजयी। 363 विक्षरः- नाशरहित, 364 रोहितः- मत्स्यविशेष का स्वरूप धारण करके अवतार लेने वाले, 365 मार्गः- परमानन्दप्राप्ति के साधन-स्वरूप, 366 हेतुः- संसार के निमित्त और उपादानकारण, 367 दामोदरः- यशोदाजी द्वारा रस्सी से बँधे हुए उदरवाले, 368 सहः- भक्तजनों के अपराधों को सहन करने वाले, 369 महीधरः- पृथ्वी को धारण करने वाले, 370 महाभागः- महान् भाग्यशाली, 371 वेगवान्-तीव्रगति वाले, 372 अमिताशनः- प्रलयकाल में सारे विश्व को भक्षण करने वाले। 373 उद्भवः- जगत् की उत्पत्ति के उपादान कारण, 374 क्षोभणः- जगत् की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरूष में प्रविष्ट होकर उन्हें क्षुब्ध करने वाले, 375 देवः- प्रकाशस्वरूप, 376 श्रीगर्भः- सम्पूर्ण ऐश्वर्य को अपने उदर में रखने वाले, 377 परमेश्वरः- सर्वश्रेष्ठ शासन करने वाले, 378 करणम्- संसारकी उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन, 379 कारणम्-जगत् के उपादान और निमित्तकारण, 380 कर्ता- सबके रचयिता, 381 विकर्ता- विचित्र भुवनों की रचना करने वाले, 382 गहनः- अपने विलक्षण स्वरूप, सामर्थ्य और लीलादि के कारण पहचाने न जा सकने वाले, 383 गुहः- माया से अपने स्वरूप को ढक लेने वाले।384 व्यवसायः-ज्ञानस्वरूप, 385 व्यवस्थानः- लोकपालादिकों को, समस्त जीवों को, चारों वर्णाश्रमों को एवं उनके धर्मों को व्यवस्थापूर्वक रचने वाले, 386 संस्थानः- प्रलय के सम्यक् स्थान, 387 स्थानदः- धु्रवादि भक्तों को स्थान देने वाले, 388 धु्रवः- अचल स्वरूप, 389 परर्द्धिः- श्रेष्ठ विभूतिवाले, 390 परमस्पष्टः- ज्ञानस्वरूप होने से परम स्पष्टरूप, 391 तुष्टः- एकमात्र परमानन्दस्वरूप, 392 पुष्टः- एकमात्र सर्वत्र परिपूर्ण, 393 शुभेक्षणः- दर्शनमात्र से कल्याण करने वाले।
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