महाभारत आदि पर्व अध्याय 78 श्लोक 18-25

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अष्टसप्ततितम (78) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद

‘तुम किसी अत्‍यन्‍त घोर चिन्‍ता में पड़ी हो, आतुर होकर शोक क्‍यों कर रही हो? तृण और लताओं से ढके हुए इस कुऐं में कैसे गिर पड़ीं? तुम किसकी पुत्री हो? सुमध्‍यमे ! ठीक-ठीक बताओ’ । देवयानी बोली- जो देवताओं द्वारा मारे गये दैत्‍यों को अपनी विद्या केवल से जिलाया करते हैं, उन्‍हीं शुक्राचार्य की मैं पुत्री हूं। निश्चय ही उन्‍हें इस बात का पता नहीं होगा कि मैं इस दुरवस्‍था में पड़ी हूं। रुप, वीर्य और बल से सम्‍पन्न तुम कौन हो, जो मेरा परिचय पूछते हो। यहां तुम्‍हारे आगमन का क्‍या कारण है, बताओ। मैं यह सब ठीक-ठीक सुनना चाहती हूं। ययाति ने कहा- भद्रे ! मैं राजा नहुष का पुत्र ययाति हूं। एक हिंसक पशु को मारने की इच्‍छा से इधर आ निकला। थका-मांदा प्‍यास बुझाने के लिये यहां आया और तिनकों से ढके हुए इस कूप में गिरी हुई तुम पर मेरी दृष्टि पड़ गयी। (देवयानी बोली) महाराज ! लाल नख और अंगुलियों से युक्त यह मेरा दाहिना हाथ है। इसे पकड़कर आप इस कुऐं से मेरा उद्धार कीजिये। मैं जानती हूं, आप उत्तम कुल में उत्‍पन्न हुए नरेश हैं। मुझे यह भी मालूम है कि आप परम शान्‍त स्‍वभाव वाले, पराक्रमी तथा यशस्‍वी वीर हैं। इसलिये इस कुऐं में गिरी हुई मुझ, अबला का आप यहां से उद्धार कीजिये। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्‍तर नहुषपुत्र राजा ययाति ने देवयानी को ब्राह्मण कन्‍या जानकर उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले उसे उस कुऐं से बाहर निकाला, वेगपूर्वक कुऐं से बाहर करके राजा ययाति उससे बोले- ‘भद्रे ! अब जहां इच्‍छा हो जाओ। तुम्‍हें कोई भय नहीं है।‘ राजा ययाति के ऐसा कहने पर देवयानी ने उन्‍हें उत्तर देते हुए कहा- तुम मुझे शीघ्र अपने साथ ले चलो; क्‍योंकि तुम मेरे प्रियतम हो। तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, अत: तुम्‍ही मेरे पति होओगे।‘ देवयानी के ऐसा कहने पर राजा बोले- ‘भद्रे ! मैं क्षत्रियकुल में उत्‍पन्न हुआ हूं और तुम ब्राह्मण कन्‍या हो। अत: मेरे साथ तुम्‍हारा समागम नहीं होना चाहिये। कल्‍याणी ! भगवान् शुक्राचार्य सम्‍पूर्ण जगत् के गुरु हैं और तुम उनकी पुत्री हो, अत: मुझे उनसे भी डर लगता है। तुम मुझ-जैसे तुच्‍छ पुरुष के योग्‍य कदापि नहीं हो’। देवयानी बोली- नरेश्वर ! यदि तुम मेरे कहने से आज मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते, तो मैं पिताजी के द्वारा भी तुम्‍हारा वरण करूंगी। फि‍र तुम मुझे अपने योग्‍य मानोगे और साथ भी ले चलोगे। (वैशम्‍पायनजी कहते हैं-) तदनन्‍तर सुन्‍दरी देवयानी की अनुमति लेकर राजा ययाति अपने नगर को चले गये। नहुषनन्‍दन ययाति के चले जाने पर सती-साध्‍वी देवयानी आर्त-भाव से रोती हुई किसी वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी रही। जब पुत्री के घर लौटने में विलम्‍ब हुआ, तब शुक्राचार्य ने धाय से पूछा- धाय ! तू पवित्र हास्‍य वाली मेरी बेटी देवयानी को शीघ्र यहां बुला ला । उनके इतना कहते ही धाय तुरंत उसे बुलाने चली गयी। जहां-जहां देवयानी सखियों के साथ गयी थी, वहां-वहां उसका पदचिन्ह खोजती हुई धाय गयी और उसने पूर्वोक्त रूप से श्रमपीड़ित एवं दीन होकर रोती हुई देवयानी को देखा। तब धाय ने पूछा- भद्रे ! तुम्‍हारा क्‍या हाल है ? शीघ्र बताओ। तुम्‍हारे पिताजी ने तुम्‍हें बुलाया है । इस पर देवयानी ने धाय को अपने निकट बुलाकर शर्मिष्‍ठा द्वारा किये हुए अपराध को बताया। वह शोक से संतप्त हो अपने सामने आयी हुई धाय घूर्णिका से बोली। देवयानी ने कहा- घूर्णिके ! तुम वेग पूर्वक जाओ और शीघ्र मेरे पिताजी से कह दो ‘अब मैं वृषपर्वा के नगर में पैर नहीं रक्‍खूंगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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