महाभारत आदि पर्व अध्याय 80 श्लोक 12-27

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अष्टसप्ततितम (80) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद

शुक्राचार्य ने कहा- महान् असुर ! दैत्‍यराजों का जो कुछ भी धन-वैभव है, यदि उसका स्‍वामी मैं ही हूं तो उसके द्वारा इस देवयानी को प्रसन्न करो। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! शुक्राचार्य के ऐसा कहने पर वृषपर्वा ने ‘तथास्‍तु‘ कहकर उनकी आज्ञा मान ली। तदनन्‍तर दोनों देवयानी के पास गये और महाकवि शुक्राचार्य ने वृषपर्वा की कही हुई सारी बात कह सुनायी। तब देवयानी ने कहा-तात ! यदि आप राजा के धन के स्‍वामी हैं तो आपके कहने से मैं इस बात को नहीं मानूंगी। राजा स्‍वयं कहें, तो मुझे विश्‍वास होगा। वृषपर्वा बोले- पवित्र मुसकान वाली देवयानी ! तुम जिस वस्‍तु को पाना चा‍हती हो, वह यदि दुर्लभ हो तो भी तुम्‍हें अवश्‍य दूंगा। देवयानी ने कहा- मैं चाहती हूं, शर्मिष्ठा एक हजार कन्‍याओं के साथ मेरी दासी होकर रहे और पिताजी जहां मेरा विवाह करें, वहां भी वह मेरे साथ जाय। यह सुनकर वृषपर्वा ने धाय से कहा- धात्री ! तुम उठो, जाओ और शर्मिष्ठा को शीघ्र बुला लाओ एवं देवयानी की जो कामना हो, उसे वह पूर्ण करे। कुल के हित के लिये एक मनुष्‍य को त्‍याग दे। गांव के भले के लिये एक कुल को छोड़ दे। जनपद के लिये एक गांव की उपेक्षा कर दे और आत्‍म कल्‍याण के लिये सारी पृथ्‍वी को त्‍याग दे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- तब धाय ने शर्मिष्ठा के पास जाकर कहा- भद्रे शर्मिष्ठे ! उठो और अपने जाति भाइयों को सुख पहुंचाओ। ‘पाप रहित राजकुमारी ! आप बाबा शुक्राचार्य देवयानी के कहने से अपने शिष्‍यों-यजमानों को त्‍याग रहे हैं। अत: देवयानी की जो कामना हो, वह तुम्‍हें पूर्ण करनी चाहिये’। शर्मिष्ठा बोली- यदि इस प्रकार देवयानी के लिये ही शुक्राचार्यजी मुझे बुला रहे हैं तो देवयानी जो कुछ चाहती है, वह सब आज से मैं करुंगी। मेरे अपराध से शुक्राचार्यजी न जायं और देवयानी भी मेरे कारण अन्‍यत्र जाने का विचार न करे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्‍तर पिताक की आज्ञा से राजकुमारी शर्मिष्ठा शिबिका पर आरुढ़ हो तुरंत राजधानी से बाहर निकली। उस समय वह एक सहस्त्र कन्‍याओं से घिरी हुई थी। शर्मिष्ठा बोली- देवयानी ! मैं एक सहस्त्र दासियों के साथ तुम्‍हारी दासी बनकर सेवा करूंगी और तुम्‍हारे पिता जहां भी तुम्‍हारा ब्‍याह करेंगे, वहां तुम्‍हारे साथ तुम्‍हारे साथ चलूंगी। देवयानी ने कहा-अरी ! मैं तो स्‍तुति करनेवाले और दान देने वाले भिक्षुक की पुत्री हूं और तुम उस बड़े बाप की बेटी हो, जिसकी मेरे पिता स्‍तुति करते हैं; फि‍र मेरी दासी बनकर कैसे रहोगी। शर्मिष्ठा बोली- जिस किसी उपाय से सम्‍भव हो, अपने विपद् ग्रस्‍त जाति-भाइयों को सुख पहुंचाना चाहिये। अत: तुम्‍हारे पिता जहां तुम्‍हें देंगे, वहां भी मैं तुम्‍हारे साथ चलूंगी। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- नृपेश्रेष्ठ ! जब वृषपर्वा की पुत्री ने दासी होने की प्रतिज्ञा कर ली, तब देवयानी ने अपने पिता से कहा। देवयानी बोली- पिताजी ! अब मैं नगर में प्रवेश नहीं करुंगी। द्धिजश्रेष्ठ ! अब मुझे विश्‍वास हो गया कि आपका विज्ञान और आपकी विद्या का बल अमोघ है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! अपनी पुत्री देवयानी के ऐसा कहने पर महायशस्‍वी द्धिजश्रेष्ठ शुक्राचार्य ने समस्‍त दानवों से पूजित एवं प्रसन्न होकर नगर में प्रवेश किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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