महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 116-124

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 116-124 का हिन्दी अनुवाद


959 प्रमाणम्-स्वतःसिद्ध होने से स्वयं प्रमाणस्वरूप, 960 प्राणनिलयः- प्राणों के आधारभूत, 961 प्राणभृत्-समस्त प्राणों का पोषण करने वाले, 962 प्राणजीवनः- प्राणवायु के संचार से प्राणियों को जीवित रखने वाले, 963 तत्वम्-यथार्थ तत्वरूप, 964 तत्ववित्- यथार्थ तत्व को पूर्णतया जानने वाले, 965 एकात्मा- अद्वितीयस्वरूप, 966 जन्ममृत्युजरातिगः- जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा आदि शरीरके धर्मों से सर्वथा अतीत। 967 भूर्भुवःस्वस्तरूः- ‘भूः भुवः स्वः’ तीनों लोकों वाले, संसारवृक्षस्वरूप, 968 तारः- संसार-सागर से पार उतारने वाले, 969 सविता- सबको उत्पन्न करने वाले, 970 प्रपितामहः- पितामह ब्रह्मा के भी पिता, 971 यज्ञः- यज्ञस्वरूप, 972 यज्ञपतिः- समस्त यज्ञों के अधिष्ठाता, 973 यज्वा- यजमानरूप से यज्ञ करने वाले, 974 यज्ञांगः- समस्त यज्ञरूप अंगों वाले, वाराहस्वरूप, 975 यज्ञवाहनः- यज्ञों को चलाने वाले। 976 यज्ञभृत्- यज्ञों को धारण करने वाले, 977 यज्ञकृत- यज्ञों के रचयिता, 978 यज्ञत- समस्त यज्ञ जिसमें समाप्त होते हैं- ऐसे यज्ञशेषी, 979 यज्ञभुक्- समस्त यज्ञों के भोक्ता, 980 यज्ञसाधनः- ब्रह्मयज्ञ, जपयज्ञ आदि बहुत से यज्ञ जिनकी प्राप्ति के साधन हैं ऐसे, 981 यज्ञान्तकृत्-यज्ञों का फल देने वाले, 982 यज्ञगुह्यम्-यज्ञों में गुप्त निष्काम यज्ञस्वरूप, 983 अन्नम्- समस्त प्राणियों के अन्न यानी अन्न की भाँति उनकी सब प्रकार से तुष्टि-पुष्टि करने वाले, 984 अन्नादः- समस्त अन्नों के भोक्ता। 985 आत्मयोनिः- जिनका कारण दूसरा कोई नहीं ऐसे स्वयं योनिस्वरूप, 986 स्वयंजातः- स्वयं अपने-आप स्वेच्छापूर्वक प्रकट होने वाले, 987 वैखानः- पातालवासी हिरण्याक्ष का वध करने के लिये पृथ्वी को खोदने वाले, वाराह-अवतारधारी, 988 सामगायनः- सामदेव का गान करने वाले, 989 देवकीनन्दनः- देवकीपुत्र, 990 स्त्रष्टा-समस्त लोकों के रचयिता, 991 क्षितीशः- पृथ्वीपति, 992 पापनाशनः- स्मरण, कीर्तन, पूजन और ध्यान आदि करने से समस्त पापसमुदाय का नाश करने वाले। 993 शंखभृत्- पान्चजन्यशंख को धारण करने वाले, 994 नन्दकी- नन्दक नामक खड्ग धारण करने वाले, 995 चक्री-सुदर्शन चक्र धारण करने वाले, 996 शार्गंधन्वा- शार्गंधनुषधारी, 997 गदाधरः- कौमोदकी नाम की गदा धारण करने वाले, 998 रथांगपाणिः- भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये सुदर्शन चक्र को हाथ में धारण करने वाले श्रीकृष्ण, 999 अक्षोभ्यः- जो किसी प्रकार भी विचलित नहीं किये जा सके, ऐसे, 1000 सर्वप्रहरणायुधः- ज्ञात और अज्ञात जितने भी युद्धादि में काम आने वाले अस्त्र-शस्त्र हैं, उन सबको धारण करने वाले। यहाँ हजार नामों की समाप्ति दिखलाने के लिये अन्तिम नाम को दुबारा लिखा गया है। मंगलवाची होने से ऊँकार का स्मरण किया गया है। अन्त में नमस्कार करके भगवान् की पूजा की गयी है। इस प्रकार यह कीर्तन करने योग्य महात्मा केशव के दिव्य एक हजार नामों का पूर्णरूप से वर्णन कर दिया। जो मनुष्य इस विष्णुसहस्त्रनाम का सदा श्रवण करता है और जो प्रतिदिन इसका कीर्तन या पाठ करता है, उसका इस लोक में तथा परलोक में कहीं भी कुछ अशुभ नहीं होता। इस विष्णुसहस्त्रनाम का श्रवण, पठन औरकीर्तन करने से ब्राह्मण वेदान्त-पारगामी हो जाता है, क्षत्रिय युद्ध में विजय पाता है, वैश्य धन से सम्पन्न होता है और शूद्र सुख पाता है। धर्म की इच्छा वाला धर्म को पाता है, अर्थ की इच्छावाला अर्थ पाताहै, भोगों की इच्छावालाभोग पाता है ओर संतान की इच्छा वाला संतान पाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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