महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-16

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षष्टित्तम (60) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : षष्टित्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

वर्ण-धर्म का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने मन को वश में करके गंगानन्दन पितामह भीष्म को प्रणाम किया और हाथ जोडकर पूछा। पितामह! कौन से ऐसे धर्म है, जो सभी वर्णों के लिये उपयोगी हो सकते है। चारों वर्णों के पृथक-पृथक धर्म कौन से है? चारों वर्णों के साथ ही चारों आश्रमों के भी धर्म कौन है तथा राजा के द्वारा पालन करने योग्य कौन कौन से धर्म माने गये है? राष्ट्र की वृद्धि कैसे होती है, राजा का अभ्युदय किस उपास से होता है? भरतश्रेष्ठ! पुरवासियों और भरण पोषण करने योग्य सेवकों की उन्नति भी किस उपाय से होती है? राजा को किस प्रकार के कोश, दण्ड, दुर्ग, सहायक, मन्त्री, ऋत्विक, पुरोहित और आचार्यों का त्याग कर देना चाहिये। पितामह किसी आपत्ति के आने पर राजा को किन लोगों पर विश्वास करना चाहिये और किन लोगों से अपने शरीर की दृढतापूर्वक रक्षा करनी चाहिये यह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा-महान् धर्मको नमस्कार है विश्रविधाता श्रीकृष्णको नमस्कार है अब मैं उपस्थित ब्राह्नाणों को नमस्कार करके सनातन धर्मका वर्णन आरम्भ करता हूं। किसी पर क्रोध न करना सत्य बोलना धन को बाँटकर भोगना क्षमाभाव रखना अपनी ही पत्नी के बाँटकर भोगना क्षमाभाव रखना अपनी ही पत्नी के गर्भ से संतान पैदा करना बाहर -भीतर से पवित्र रहना, किसी से द्रोह न करना, सरलभाव रखना और भरण पोषण के योग्य व्यक्तियों का पालन करना -ये नौ सभी वर्णों के लिये उपयोगी धर्म है अब मैं केवल ब्राह्नाण का जो धर्म है उसे बता रहा हूँ । महाराज! इन्द्रिय-संयमको ब्राह्नाणों का प्राचीन धर्म बताया गया है इसके सिवा उन्हें सदा वेद -शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये क्योंकि इसी से उनके सब कर्मों की पूर्ति हो जाती है। यदि अपने वर्णोचित कर्म में स्थित शान्त और ज्ञान विज्ञान से तृप्त ब्राह्नाण को किसी प्रकार के असत् कर्म का आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो वह उस धन से विवाह करके संतान की उत्पत्ति करे अथवा उस धनको दान और यज्ञ में लगा दे धनको बाँटकर ही भोगना चाहिये ऐसा सत्पुरूषों का कथन है। बाह्यण केवल वेदों के स्वाध्याय से ही कृतकृत्य हो जाता है। वह दुसरा कर्म करे या न करे। सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखने के कारण वह मैत्र कहलाता है। भरतनन्दन! क्षत्रिय का भी जो धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हुं। राजन्! क्षत्रिय दान तो करे , किंतु किसी से याचना न करे स्वयं यज्ञ करे, किंतु पुरोहित बनकर दुसरों का यज्ञ न करावे। वह अध्ययन करे, किंतु अध्यापक न बने, प्रजाजनोंका सब प्रकारसं पालन करता रहे। लुटेरों और डाकुओं का वध करने के लिये सदा तैयार रहे। रणभूमि में पराक्रम प्रकट करे। इन राजाओं मे जो भुपाल बडे-बडे यज्ञ करने वाले तथा वेदशास्त्रों के ज्ञान से सम्पत्र हैं और जो युद्ध में विजय प्राप्त करने वाले है, वे ही पुण्यलोकों पर विजय प्राप्त करने वालों में उत्तम हैं। जो क्षत्रिय शरीर पर घाव हुए बिना ही समर- भूमि से लौट आता है, उसके इस कर्म की पुरातन धर्म को जानने वाले विद्धान प्रशंसा नहीं करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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