महाभारत आदि पर्व अध्याय 157 श्लोक 18-32
सप्तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृह पर्व)
ब्रह्मन् ! आपके इस पुत्र को आपके अनुरुप न देखकर और आपकी इस पुत्री को भी अयोग्य पुरुष के वश में पड़ी देखकर तथा लोक में घमंडी मनुष्यों द्वारा अपमानित हो अपने को पूर्ववत् सम्मानित अवस्था में न पाकर मैं प्राण त्याग दूंगी, इसमें संशय नहीं है। जैसे पानी सूख जाने पर वहां की मछलियां नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार मुझसे और आप से रहित होकर अपने ये दोनों बच्चे निस्संदेह नष्ट हो जायंगे।।20।। नाथ ! इस प्रकार आपके बिना मैं और वे दोनों बच्चे-तीनों ही सर्वथा विनष्ट हो जायंगे-इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिये आप केवल मुझे त्याग दीजिये। ब्रह्मन् ! पुत्रवती स्त्रियां यदि अपने पति से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जायं तो यह उनके लिये परम सौभाग्य की बात है। धर्मज्ञ विद्वान ऐसा ही मानते हैं। पिता,माता और पुत्र ये सब परिमित मात्रा में ही सुख देते हैं, अपरिमित सुख को देनेवाला तो केवल पति है। ऐसे पति का कौन स्त्री आदर नहीं करेगी ? आर्यपुत्र ! आपके लिये मैंने यह पुत्र और पुत्री भी छोड़ दी, समस्त बन्धु-बान्धवों को भी छोड़ दिया और अब अपना यह जीवन को भी त्याग देने को उद्यत हूं। स्त्री यदि सदा अपने स्वामी के प्रिय और हित में लगी रहे तो यह उसके लिये बड़े-बड़े यज्ञों, तपस्याओं, नियमों और नाना प्रकार के दानों से भी बढ़कर है। अत: मैं जो यह कार्य करना चाहती हूं, यह श्रेष्ठ पुरुषों से सम्मत धर्म हैं और आपके तथा इस कुल के लिये सर्वथा अनुकूल एवं हितकारक है। अनुकूल संतान, धन, प्रिय सुहृदय तथा पत्नी-ये सभी आपद्धर्म से छूटने के लिये ही वाञ्छनीय हैं; ऐसा साधु पुरुषों का मत है। आपत्ति के लिये धन की रक्षा करे, धन के द्वारा स्त्री की रक्षा करे और स्त्री तथा धन दोनों के द्वारा सदा अपनी रक्षा करे। पत्नी, पुत्र और धन और घर-ये सब वस्तुएं द्दष्ठ और अद्दष्ट फल (लौकिक और पारलौकिक) के लिये संग्रहणीय हैं। विद्वानों का यह निश्चय है। एक और सम्पूर्ण कुल हो और दूसरी ओर उस कुल की वृद्धि करने वाला शरीर हो तो उन दोनों की तुलना करने पर वह सारा कुल उस शरीर के बराबर नहीं हो सकता; यह विद्वानों का निश्चय है । आर्य ! अत: आप मेरे द्वारा अभीष्ट कार्य की सिद्धि कीजिये और स्वयं प्रयत्न करके अपने को इस संकट से बचाइये। मुझे राक्षस के पास जाने की आज्ञा दीजिये और मेरे दोनों बच्चों का पालन कीजिये। धर्मज्ञ विद्वानों ने धर्म-निर्णय के प्रसंग में नारी को अवध्य बताया है। राक्षसों को भी लोग धर्मज्ञ कहते हैं। इसीलिये सम्भव है, वह राक्षस भी मुझे स्त्री, समझकर न मारे। पुरुष वहां जायं, तो वह राक्षस उनका वध कर ही डालेगा इसमें संशय नहीं हैं; परंतु स्त्रियों के वध में संदेह है। (यदि राक्षस ने धर्म का विचार किया तो मेरे बच जाने की आशा है) अत: धर्मज्ञ आर्यपुत्र ! आप मुझे ही वहां भेजें।
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