महाभारत आदि पर्व अध्याय 94 श्लोक 22-41
चतुर्नवतितम (94) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
भारत ! तब महाराज भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया और महर्षि भरद्वाज की कृपा से एक पुत्र प्राप्त किया, जिसका नाम भुमन्यु था। भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर पौरव कुल का आनन्द बढ़ाने वाले भरत ने अपने को पुत्रवान् समझकर भुमन्यु को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया। भुमन्यु के दिविरथ नामक पुत्र हुआ । उसके सिवा सुहोत्र, सुहोता, से हवि, सुयजु और ॠचीक भी भुमन्यु के ही पुत्र थे। ये सब पुप्करिणि के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । इन सब क्षत्रियों में सुहोत्र ही ज्येष्ठ थे । अत: उन्हीं को राज्य मिला। राजा सुहोत्र ने राजसूय तथा अश्वमेध आदि अनेक यज्ञों द्वारा यजन किया और समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का, जो हाथी-घोड़ों से परिपूर्ण तथा अनेक प्रकार के रत्नों से सम्पन्न थी, उपभोग किया। जब राजा सुहोत्र धर्मपूर्वक प्रजा का शासन कर रहे थे, उस समय सारी पृथ्वी हाथी, घोड़ों, रथ और मनुष्यों से खचाखच भरी थी। उन पशु आदि के भारी भार से पीड़ित होकर राजा सुहोत्र के शासन काल की पृथ्वी मानों नीचे धंसी जाती थी। उनके राज्य की भूमि लाखों चैत्यों ( देव-मन्दिरों ) और यज्ञयूपों से चिन्हित दिखाई देती थी । सब लोग हृष्ट-पुष्ट होते थे । खेती की उपज अधिक हुआ करती थी। इस प्रकार उस राज्य की पृथ्वी सदा ही अपने वैभव से सुशोभित होती थी। भारत ! राजा सुहोत्र से ऐक्ष्वाकी ने अजमीड, सुसीढ तथा पुरुमीढ नामक तीन पुत्रों को जन्म दिया। उनमें अजमीढ ज्येष्ठ थे। उन्हीं पर वंश की मार्यादा टिकी हुई थी। जनमेजय ! उन्होंने भी तीन स्त्रियों के गर्भ से छ: पुत्रों को उत्पन्न किया। उनकी धूमिनी नाम वाली स्त्री ने ॠक्ष को, नीली ने दुष्यन्त और परमेष्ठी को तथा केशिनी ने जह्र, व्रजन तथा रूपिण इन तीन पुत्रों को जन्म दिया। इनमें दुष्यन्त और परमेष्ठी के सभी पुत्र पाञ्चाल कहलाये। राजन् ! अमित तेजस्वी जह्र के वंशज कुशिक नाम से प्रसिद्ध हुए। व्रजन तथा रूपिण के ज्येष्ठ भाई ॠक्ष को राजा कहा गया है। ॠक्ष से संवरण का जन्म हुआ। राजन् ! ये वंश की वृद्धि करने वाले पुत्र थे। जनमेजय ! ॠक्ष पुत्र सवरण जब इस पृथ्वी का शासन कर रहे थे, उस समय प्रजा का बहुत बड़ा संहार हुआ था, ऐसा हमने सुना है। इस प्रकार नाना प्रकार से क्षय होने के कारण वह सारा राज्य नष्ट-सा हो गया। सबको भूख, मृत्यु, अनावृष्टि और व्याधि आदि के कष्ट सताने लगे। शत्रुओं की सेनाऐं भरतवंशी योद्वाओं का नाश करने लगीं। पाञ्चाल नरेश ने इस पृथ्वी को कम्पित करते हुए चतुरंगिणी सेना के साथ वंवरण पर आक्रमण किया और उनकी सारी भूमि वेगपूर्वक जीतकर दस अक्षौहिणी सेनाओं द्वारा संवरण को भी युद्ध में परास्त कर दिया। तदनन्तर स्त्री, पुत्र, सुहृद् और मन्त्रियों के साथ राजा सवंरण महान् भय के कारण वहां से भाग चले। उस समय उन्होंने सिंधु नामक महानद के तटवर्ती निकुञ्ज में, एक पर्वत के समीप से लेकर नदी के तट तक फैला हुआ था, निवास किया । वहां उस दुर्ग का आश्रय लेकर भरतवंशी क्षत्रिय बहुत वर्षों तक टिके रहे। उन सबको वहां रहते हुए एक हजार वर्ष बीत गये।
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