महाभारत आदि पर्व अध्याय 158 श्लोक 1-14
अष्टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृह पर्व)
ब्राह्मण-कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन तथा कुन्ती का उन सबके पास जाना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! दु:ख में डूबे हुए माता-पिता का यह (अत्यन्त शोकपूर्ण ) वचन सुनकर कन्या के सम्पूर्ण अंगों में दु:ख व्याप्त हो गया; उसने माता और पिता दोनों से कहा- ‘आप दोनों इस प्रकार अत्यन्त दु:ख से आतुर हो अनाथ की भांति क्यों बार-बार रो रहे हैं ? मेरी भी बात सुनिये और उसे सुनकर जो उचित जान पड़े, वह कीजिये। ‘इसमें संदेह नहीं कि एक-न-एक दिन आप दोनों को धर्मत: मेरा परित्याग करना पड़ेगा। जब मैं त्याज्य ही हूं, तब आज ही मुझे त्यागकर मुझ अकेली के द्वारा इस समूचे कुल की रक्षा लीजिये। ‘संतान की इच्छा इसीलिये की जाती है कि यह मुझे संकट से उबारेगी। अत: इस समय जो संकट उपस्थित हुआ है, उसमें नौका की भांति मेरा उपयोग करके आप लोग शोक-सागर से पार हो जाइये। ‘जो पुत्र इस लोक में दुर्गम संकट से पार लगाये अथवा मृत्यु के पश्चात् परलोक में उद्धार करे- सब प्रकार पिता को तार दे, उसे ही विद्वानों ने वास्तव में पुत्र कहा है। ‘पितरलोग मुझसे उत्पन्न होने वाले दौहित्र से अपने उद्धार की सदा अभिलाषा रखते हैं, इसलिये मैं स्वयं ही पिता के जीवन की रक्षा करती हुई उन सबका उद्धार करुंगी। ‘यदि आप परलोक वासी हो गये तो यह मेरा नन्हा-सा भाई थोड़े ही समय में नष्ट हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। ‘पिता स्वर्गवासी हो जायं और मेरा भैया भी नष्ट हो जाय, तो पितरों का पिण्ड ही लुप्त हो जायगा, जो उनके लिये बहुत ही अप्रिय होगा। ‘पिता, माता और भाई-तीनों से परित्यक्त होकर मैं एक दु:ख से दूसरे महान् दु:ख में पड़कर निश्चय ही मर जाऊंगी। यद्यपि मैं ऐसा दु:ख भोगने के योग्य नहीं हूं, तथापि आप लोगों के बिना मुझे सब भोगना ही पड़ेगा। ‘यदि आप मृत्यु के संकट से मुक्त एवं निरोग रहे तो मेरी माता, मेरा नन्हा–सा भाई, संतान परम्परा और पिण्ड (श्राद्ध-कर्म) ये सब स्थिर रहेंगे; इसमें संशय नहीं है। ‘कहते हैं पुत्र अपना आत्मा है, पत्नी मित्र है, किंतु पुत्री ही निश्चय ही संकट है, अत: आप इस संकट से अपने को बचा लीजिये और मुझे भी धर्म में लगाइये। ‘पिताजी ! आपके बिना मैं सदा के लिये दीन और असहाय हो जाऊंगी, अनाथ और दयनीय समझी जाऊंगी। अरक्षित बालिका होने के कारण मुझे जहां कहां भी जाने के लिये विवश होना पड़ेगा। ‘अथवा मैं अपने को मृत्यु के मुख में डालकर इस कुल को संकट से छुड़ाउंगी। यह अत्यन्त दुष्कर कर्म कर लेने से मेरी मृत्यु सफल हो जायगी। ‘द्विजश्रेष्ठ पिताजी ! यदि आप मुझे त्यागकर स्वयं राक्षस के पास चले जायंगे तो मैं बड़े दु:ख में पड़ जाऊंगी। अत: मेरी ओर भी देखिये।
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