महाभारत आदि पर्व अध्याय 158 श्लोक 15-24
अष्टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृह पर्व)
‘अत: हे साधुशिरोमणे ! आप मेरे लिये, धर्म के लिये तथा संतान की रक्षा के लिये भी अपनी रक्षा कीजिये और मुझे, जिसको एक दिन छोड़ना ही हैं, आज ही त्याग दीजिये। ‘पिताजी ! जो काम अवश्य करना है, उसका निश्चय करने में आपको अपना समय व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये (शीघ्र ही मेरा त्याग करके इस कुल की रक्षा करनी चाहिये)। आप लोगों के लिये इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्या होगा कि आपके स्वर्गवासी हो जाने पर हम दूसरों से अन्न की भीख मांगते हुए कुत्तों की तरह इधर-उधर दौड़ते फिरें। यदि मुझे त्यागकर आप अपने भाई-बन्धुओं सहित इस क्लेश से मुक्त हो नीरोग बने रहें तो मैं अमरलोक में निवास करती हुई बहुत सुखी होऊंगी। ‘यद्यपि ऐसे दान से देवता और पितर प्रसन्न नहीं होते, ऐसा मैनें सुन रक्खा है, तथापि आपके द्वारा दी हुई जलाञ्जलि से वे प्रसन्न होकर अवश्य हमारा हित-साधन करने-वाले होंगे’। वैशम्पयानजी कहते हैं-जनमेजय ! इस तरह उस कन्या के मुख से नाना प्रकार का विलाप सुनकर पिता-माता और वह कन्या तीनों फूट-फूटकर रोने लगे। तब उनको सबको रोते देख ब्राह्मण का नन्हा–सा बालक उस सबकी ओर प्रफुल्ल नेत्रों से देखता हुआ तोतली भाषा में अस्पष्ट एवं मधुर वचन बोला- ‘पिताजी ! न रोओ, मां ! न रोओ, बहिन ! न रोओ, वह हंसता हुआ-सा प्रत्येक के पास जाता और सबको यही बात कहता था। तदनन्तर उसने एक तिनका उठा लिया और अत्यन्त हर्ष में भरकर कहा-‘मैं इसी से उस नरभक्षी राक्षस को मार डालूंगा। यद्यपि वे सब लोग दु:ख में डूबे हुए थे, तथापि उस बालक की अस्पष्ट तोतली बोली सुनकर उनके हृदय में सहसा अत्यन्त प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। ‘अब यही अपने को प्रकट करने का अवसर है’ यह जानकर कुन्तीदेवी उन सब के निकट गयीं और अपनी अमृतमयी वाणी से उन मृतक (तुल्य) मानवों को जीवन प्रदान करती हुई-सी बोलीं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत बकवर्धपर्व में ब्राह्मण की कन्या और पुत्र के वचन-सम्बन्धी एक सौ अट्ठानवां अध्याय पूरा हुआ।
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