श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 39-44

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दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 39-44 का हिन्दी अनुवाद

भगवन्! यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी अपने ह्रदय की विषय-वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकों के लिये आप ह्रदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गले में मणि पहले हुए हो, परन्तु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं, विषयों से विरक्त नहीं होते, उन्हें जीवन भर और जीवन के बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है। क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि के क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरुप न जानने के कारण अपने धर्म-कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नरक आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है[१]। भगवन्! आपके वास्तविक स्वरुप को जानने वाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पाप-कर्मों के फल सुख एवं दुःखों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादन शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियों के लिये हैं। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरुप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणों का गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने ह्रदय में बैठा लेता है तो अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुण गणों के निवासस्थान प्रभो! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्यों के फल सुख-दुःखों और विधि-निषेधों से अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरुप गति हैं। (परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियों का छोड़कर और सभी शास्त्र बन्धन में हैं तथा वे उसका उल्लंघन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं)[२]। भगवन्! स्वर्गादि लोकों के अधिपति इन्द्र, ब्रम्हा प्रभृति भी आपकी थाह—आपका पार न पा सके; और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते। क्योंकि जब अन्त हैं हैं ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे ? प्रभो! जैसे आकाश में हवा से धूल के नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे आप में काल के वेग से अपने से उत्तरोंत्तर दसगुने सात आवरणों के सहित असंख्य ब्राम्हण एक साथ घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले। हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरुप का साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं, आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना भी निषेध कर देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती है[३]। भगवान नारायण ने कहा—देवर्षे! इस प्रकार सनकादि ऋषियों ने आत्मा और ब्रम्ह की एकता बतलाने वाला उपदेश सुनकर आत्मस्वरुप को जाना और नित्य सिद्ध होने पर भी इस उपदेश से कृतकृत्य-से होकर उन लोगों ने सनन्दन की पूजा की । नारद! सनकादि ऋषि-सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे, अतएव वे सबके पूर्वज हैं। उन आकाशगामी महात्माओं ने इस प्रकार समस्त वेद, पुराण और उपनिषदों का रस निचोड़ लिया है, यह सबका सार-सर्वस्व है । देवर्षे! तुम भी उन्हीं के समान ब्रम्ह के मानस-पुत्र हो—उनकी ज्ञान-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो। तुम भी श्रद्धा के साथ इस ब्रम्हात्मविद्या को धारण करो और स्वच्छन्द भाव से पृथ्वी में विचरण करो। यह विद्या मनुष्यों की समस्त वासनाओं को भस्म कर देने वाली है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रभो! मैं दम्भपूर्ण संसार के बहाने लोगों को ठग रहा हूँ। एकमात्र भोग की चिन्ता से ही आतुर हूँ तथा रात-दिन नाना प्रकार के उद्दोगों की रचना की थकावट से व्याकुल तथा बेसुध हो रहा हूँ। मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन करता हूँ, अज्ञानी हूँ और अज्ञानी लोगों के द्वारा प्राप्त सम्मान से ‘मैं सन्त हूँ’ ऐसा घमण्ड कर बैठा हूँ। दीनानाथ, दयानिधान, परमानन्द! मेरी रक्षा कीजिये।
  2. माधव! आप मुझे अपने स्वरुप का अनुभव कराइये, जिससे फिर सुख-दुःख के संयोग की स्फूर्ति नहीं होती। अथवा मुझे अपने गुणों के श्रवण और वर्णन का प्रेम ही दीजिये, जिससे कि मैं विधि-निषेध का किंकर न होऊँ।
  3. हे अनन्त! ब्रम्हा आदि देवता आपका अन्त नहीं जानते, न आप ही जानते और न तो वेदों की मुकुटमणि उपनिषदें ही जानती हैं; क्योंकि आप अनन्त हैं। उपनिषदें ‘नमो नमः’, ‘जय हो, जय हो’ यह कहकर आपमें चरितार्थ होती हैं। इसलिये मैं भी ‘नमो नमः’, ‘जय हो’, ‘जय हो’, यह कहकर आपके चरण-कमल की उपासना करता हूँ।

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