महाभारत आदि पर्व अध्याय 151 श्लोक 19-36

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एकपंचाशदधिकशततम (150) अध्‍याय: आदि पर्व (हिडिम्‍ब पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकपंचाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद

‘मेरे भाई की बात क्रुरता से भरी हैं, अत: मै कदापि उसका पालन नहीं करुंगी। (नारी के हदय में) पतिप्रेम ही अत्‍यन्‍त प्रबल होता है। भाई का सौहार्द उसके समान नहीं होता। इन सबको मार देने पर इनके मांस से मुझे और मेरे भाई को केवल दो घड़ी के लिये तृप्ति मिल सकती हैं और यदि न मारुं तो बहुत वर्षो तक इनके साथ आनन्‍द भोगूंगी’। हिडिम्‍बा इच्‍छानुसार रुप धारण करने वाली थी। वह मानव जाति की स्‍त्री के समान सुन्‍दर रुप बनाकर लजीली ललना की भांति धीरे-धीरे महाबाहु भीमसेन के पास गयी। दिव्‍य आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। तब उसने मुसकराकर भीमसेन से इस प्रकार पूछा- ‘पुरुषरत्‍न ! आप कौन हैं और कहां से आये हैं ? वे देवताओं के समान सुन्‍दर रुपवाले पुरुष कौन हैं, जो यहां सो रहे हैं? ‘और अनव ! ये सबसे बड़ी उग्रवाली श्‍यामा सकुमारी देवी आपकी कौन लगती हैं, जो इस वन में आकर भी ऐसी नि:शक्‍ख सो रही हैं, मानो अपने घर में ही हों। ‘इन्‍हें यह पता नहीं है कि यह गहन वन राक्षसों का निवास स्‍थान हैं। यहां हिडिम्‍ब नामक पापात्‍मा राक्षस रहता हैं।। ‘वह मेरा भाई है। उस राक्षस ने दुष्‍टभाव से मुझे यहां भेजा हैं। देवोपम वीर ! वह आप लोगों का मांस खाना चाहता हैं। ‘आपका तेज देवकुमारों का सा हैं, मैं आपको देखकर अब दूसरे को अपना पति बनाना नहीं चाहती। मैं यह सच्ची बात आपसे कह रही हूं। ‘धर्मज्ञ ! इस बात को समझकर आप मेरे प्रति उचित बर्ताव कीजिये। मेरे तन-मन को कामदेव ने मथ डाला है। मैं आपकी सेविका हूं, आप मुझे स्‍वीकार कीजिये। ‘महाबाहो ! मैं इस नरभक्षी राक्षस से आपकी रक्षा करुंगी।हम दोनों पर्वतों की दुर्गम कन्‍दराओं में निवास करेंगे। अनघ ! आप मेरे पति हो जाइये। तपाये हुए सोने के समान वर्णवाली स्‍त्री को ‘श्‍यामा’कहा जाता हैं, जैसे कि इस वचन से सिद्ध हुआ है-‘तप्‍तकाञ्चनवर्णाभा सा स्‍त्री श्‍याभेति कव्‍यते।‘ वीर ! आपका भला चाहता हूं। कही ऐसा न हो कि आपके ठुकराने से मेरे प्राण ही मुझे छोड़कर चले जायं। शत्रुदमन ! यदि आपने मुझे त्‍याग दिया तो मैं कदापि जीवित नहीं रह सकती। मैं आकाश में विरनचनेवाली हूं। जहां इच्‍छा हो, वहां विचरण कर सकती हूं। आप मेरे साथ भिन्‍न-भिन्‍न लोकों और प्रदेशों में विहार करके अनुपम प्रसन्‍नता प्राप्‍त किजिये। भीमसेन बोले-राक्षसी ! ये मेरे ज्‍येष्‍ठ भ्राता हैं, जो मेरे लिये परम सम्‍मानीय गुरु हैं, इन्‍होंने अभी तक विवाह नहीं किया हैं, ऐसी दशा मे तुझसे विवाह करके किसी प्रकार परिवेता नहीं बनना चाहता। कौन ऐसा मनुष्‍य होगा, जो इस जगत् में सामर्थ्‍यशाली होते हुए भी, सूखपूर्वक सोये हुए इन बन्‍धुओं को, माता को तथा बड़े भ्राता को भी किसी प्रकार अरक्षित छोड़कर जा सके? मुझ-जैसा कौन पुरुष काम पीड़ित की भांति इन सोये हुए भाइयों और माता को राक्षस का भोजन बनाकर (अन्‍यत्र) जा सकताहै? राक्षसी ने कहा-आपको जो प्रिय लगे, मैं वही करुंगी।आप इन सब लोगों को जगा दिजिये। मैं इच्‍छानुसार उस मनुष्‍य भक्षी राक्षस से इन सबको छुडा लुंगी। भीमसेन ने कहा-राक्षसी ! मेरे भाई और माता इस वन-में सुखपूर्वक सो रहे हैं, तुम्‍हारे दुरात्‍मा भाई के भय से मैं इन्‍हें जगाउंगा नहीं। भीरु ! सुलोचने ! मेरे पराक्रम को राक्षस, मनुष्‍य, गन्‍धर्व तथा यक्ष भी नही सह सकते हैं। अत:भद्रे ! तुम जाओ या रहो; अथवा तुम्‍हारी जैसी इच्‍छा हो, वही करो। तन्‍वगि ! अथवा यदि तुम चाहो तो अपने नरमांस भक्षी भाई को भेज दो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तगर्त हिडिम्‍बपर्व में भीम-हिडिम्‍बा-संवादविषयक एक सौ इक्‍यानवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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