श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 15-31

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:४५, ५ अगस्त २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः(3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद
भगवान के अवतारों का वर्णन

चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की । जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया । बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया । चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त भगवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है । पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी । सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राम्हणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया । इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रुप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति का देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं । अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं । उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा । उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार)—में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्र रूप में आपका बुद्धावतार होगा । इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे ही जायँगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राम्हण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे[१]। शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं । ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं । ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं । भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय—रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियम पूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है । प्राकृत स्वरुपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महतत्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है । जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसर पने का वायु में आरोप करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्य रूप जगत् का आरोप करते हैं ।


« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ बाईस अवतारों की गणना की गयी है, परन्तु भगवान् के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीस की संख्या यों पूर्ण करते हैं—राम कृष्ण के अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही, शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं। स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। अतः श्रीकृष्ण को अवतारों की गणना में नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं—एक तो केश का अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्नि पर कृपा करने वाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रम्ह। इस प्रकार इन अवतारों से विशिष्ट पाँचवे साक्षात् भगवान् वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं—हंस और हयग्रीव।

संबंधित लेख

-