महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 35 श्लोक 16-23
पञ्चत्रिंश (36) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
कुछ ब्राम्हण विषधर सर्प के समान भयंकर होते हैं और कुछ मन्द स्वभाव के भी होते हैं। युधिष्ठिर! इस जगत में ब्राम्हणों के स्वभाव और आचार-व्यवहार अनेक प्रकार के हैं। मेकल, द्रविड़, लाट, पौण्ड, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद, दार्व, चौर, शबर, बर्बर, किरात और यवन- ये सब पहले क्षत्रिय थे; किंतु ब्राम्हणों के साथ ईर्ष्या करने से नीच हो गये। ब्राम्हणों के तिरस्कार से ही असुरों को समुद्र में रहना पड़ा और ब्राहामणों के कृपा प्रसाद से देवता स्वर्गलोक में निवास करते हैं। जैसे आकाश को छूना, हिमालय को विचलित करना और बाँध बाँधकर गंगा के प्रवाह को रोक देना असम्भ्ाव है, उसी प्रकार इस भूतल पर ब्राम्हणों को जीतना सर्वथा असम्भव है। ब्राम्हणों से विरोध करके भूमण्डल का राज्य नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि महात्मा ब्राम्हणों, देवताओं के भी देवता हैं। युधिष्ठिर! यदि तुम इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य भोगना चाहते हो तो दान और सेवा के द्वारा सदा ब्राहामणों की पूजा करते रहो। निष्पाप नरेश! दान लेने से ब्राम्हणों का तेज शान्त हो जाता है, इसलिये जो दान नहीं लेना चाहते उन ब्राम्हणों से तुम्हें अपने कुल की रक्षा करनी चाहिये।
« पीछे | आगे » |