श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 1-14

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प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः (12)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः द्वादश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
परीक्षित् का जन्म

शौनकजी! ने कहा—अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रम्हास्त्र चलाया था, उससे उत्तर का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान ने उसे पुनः जीवित कर दिया । उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित के, जिन्हें शुकदेवजी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं । सूतजी ने कहा—धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से निःस्पृह हो गये थे । शौनकादि ऋषियों! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी । उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवता लोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी । शौनकजी! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित् जब अवश्त्थामा के ब्रम्हास्त्र के तेज से जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है । वह देखने में तो अँगूठे भर का है, परन्तु उसका स्वरुप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल है, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है । जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रम्हास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है । इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रहास्त्र के तेज को शान्त करे वहीं अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंश धर परीक्षित् का जन्म हुआ। जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो । पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राम्हणों से मंगल वाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये । महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे। उन्होंने प्रजा तीर्थ[१] नामक काल में अर्थात् नाल काटने के पहले ही ब्राम्हणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी-घोड़े और उत्तम अन्न का दान दिया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नालच्छेदन से पहले सूतक नहीं होता, जैसे कहा है—‘यावन्न छिद्दते नालं तावन्नाप्नोति सुतकम्। छिन्ने नाले ततः पश्चात् सूतकं तु विधीयते।।’ इसी समय को ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है। स्मृति कहती है—‘पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’ अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति’ और व्यतीपात के समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

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