महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 51-61
सैंतालीसवाँ अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
कुरुनन्दन! वैश्य की एक ही वैश्यकन्या धर्मानुसार भार्या हो सकती है। दूसरी शुद्रा भी होती है, परंतु शास्त्र से उसका समर्थन नहीं होता है। भरतश्रेष्ठ! कुन्तीकुमार! वैश्य के वैश्या और शूद्रा दोनों के गर्भ से पुत्र हों तो उनके लिये भी धन के बँटवारे का वैसा ही नियम है। भरतभूषण नरेश! वैश्य के धन को पाँच भागों में विभक्त करना चाहिये। फिर वैश्या और शूद्रा के पुत्रों में उस धन का विभाजन कैसे करना चाहिये, यह बताता हूँ। भरतनन्दन! उस पैतृक धन में से चार भाग तो वैश्या के पुत्र को ले लेने चाहियें और पाँचवाँ अंश शूद्रा के पुत्र का भाग बताया गया है। वह भी पिता के देने पर उस धन को ले सकता है। बिना दिया हुआ धन लेने का उसे कोई अधिकार नहीं है। तीनों वर्णों से उत्पन्न हुआ शुद्र सदा धन न देने के योग्य ही होता है। शुद्र की एक ही अपनी जाति की ही स्त्री भार्या होती है। दूसरी किसी प्रकार नहीं। उसके सभी पुत्र, व सौ भाई क्यों न हों, पैतृक धन में से समान भाग के अधिकारी होते हैं। समस्त वर्णों के सभी पुत्रों का, जो समान वर्ण की स्त्री से उत्पन्न हुए हैं, सामान्यत: पैतृक धन में समान भाग माना गया है। कुन्तीन्दन! ज्येष्ठ पुत्र का भाग भी ज्येष्ठ होता है। उसे प्रधानत: एक अंश अधिक मिलता है। पूर्वकाल में स्वयम्भू ब्रम्हा जी ने पैतृक धन के बँटवारे की यह विधि बतायी थी। नरेश्वर! समान वर्ण की स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, उनमें यह दूसरी विशेषता ध्यान देने योग्य है। विवाह की विशिष्टता के कारण उन पुत्रों में भी विशिष्टता आ जाती है। अर्थात पहले विवाह की स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र श्रेष्ठ और दूसरे विवाह की स्त्री से पैदा हुआ पुत्र कनिष्ठ होता है।तुल्य वर्णवाली स्त्रियों से उत्पन्न हुए उन पुत्रों में भी जो ज्येष्ठ है, वह एक भाग ज्येष्ठांश ले सकता है। मध्यम पुत्र को मध्यम और कनिष्ठ पुत्र को कनिष्ठ भाग लेना चाहिये। इस प्रकार सभी जातियों में समान वर्ण की स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र ही श्रेष्ठ होता है। मरीचि-पुत्र महर्षि कश्यप ने भी यही बात बतायी है।
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