महाभारत आदि पर्व अध्याय 118 श्लोक 13-28
अष्टादशाधिकशततम (118) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
अथवा यदि भिक्षा मिलनी असम्भव हो जाय, तो कई दिन तक उपवास ही करता चलूंगा। ( भिक्षा मिल जाने पर भी ) भोजन थोड़ा-थोड़ा ही करूंगा। ऊपर बताये हुए एक प्रकार से भिक्षा न मिलने पर ही दूसरे प्रकार आश्रय लंगा। ऐसा तो कभी न होगा कि लोभवश दूसरे-दूसरे बहुत से घरों में जाकर भिक्षा लूं। यदि कहीं कुछ न मिला तो भिक्षा की पूर्ति के लिये सात घरों पर फेरी लगा लूंगा। यदि मिला तो और न मिला तो, दोनों ही दशाओं में समान दृष्टि रखते हुए भारी तपस्या में लगा रहूंगा। एक आदमी बसूले से मेरी एक बांह काटता हो और दूसरा मेरी दूसरी बांह पर चन्दन छिड़कता हो तो उन दोनों में से एक के अकल्याण का और दूसरे के कल्याण का चिन्तन नहीं करूंगा। जीने अथवा मरने की इच्छा वाले मनुष्य जैसी चेष्टाऐं करते हैं, वैसी कोई चेष्टा मैं नहीं करूंगा। न जीवन का अभिनन्दन करूंगा, न मृत्यु से द्वेष। जीवित पुरुषों द्वारा अपने अभ्युदय के लिये जो-जो कर्म किये जा सकते हैं, उन समस्त सकाम कर्मों को मैं त्याग दूंगा; क्योंकि वे सब काल से सीमित हैं। अनित्य फल देने वाली क्रियाओं के लिये जो सम्पूर्ण इन्द्रियों द्वारा चेष्टा की जाती है, उस चेष्टा को भी मैं सर्वथा त्याग दूंगा; धर्म के फल को भी छोड़ दूंगा। अपने अन्त:करण के मल को सर्वथा धोकर शुद्ध हो जाऊंगा। मैं सब पापों से सर्वथामुक्त हो अविद्याजनित समस्त बन्धनों को लांघ जाऊंगा। किसी के वश में न रहकर वायु के समान सर्वत्र विचरूंगा। सदा इस प्रकार की धृति (धारणा) द्वारा उक्त रूप से व्यवहार करता हुआ भयरहित मोक्षरहित मोक्षमार्ग में स्थित होकर इस देह का विसर्जन करूंगा। मैं संतानोत्पादन की शक्ति से रहित हो गया हूं। मेरा गृहस्थाश्रम संतानोत्पादन आदि धर्म से सर्वथा शून्य है और मेरे लिये अपने वीर्य क्षय के कारण सर्वथा शोचनीय हो रहा है; अत: अत्यन्त दीनतापूर्ण मार्ग पर अब मैं नहीं चल सकता। जो सत्कार या तिरस्कार पाकर दीनतापूर्ण दृष्टि से देखता हुआ दूसरे पुरुष के पास जीविका की आशा से जाता है, वह कामात्मा मनुष्य तो कुत्तों के मार्ग पर चलता है। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! यों कहकर राजा पाण्डु अत्यन्त दु:ख से आतुर हो लंबी सांस खींचते और कुन्ती-माद्री की ओर देखते हुए उन दोनों से इस प्रकार बोले- ‘(देवियो ! तुम दोनों हस्तिनापुर को लौट जाओ और) माता अम्बिका, अम्बालिका, चाचा भीष्मीजी, राजपुरोहित गण, कठोर व्रत का पालन तथा सोमपान करने वाले महात्मा ब्राह्मण तथा वृद्ध पुरवासी जन आदि जो लोग वहां हम लोगों के आश्रित होकर निवास करते हैं, उन सबको प्रसन्न करके कहना, राजा पाण्डु संन्यासी होकर वन में चले गये’। वनवास के लिये दृढ़ निश्चय करने वाले पतिदेव का यह वचन सुनकर कुन्ती और माद्री ने उनके योग्य बात कही -‘भरतश्रेष्ठ ! संन्यास के सिवा और भी तो आश्रम हैं, जिनमें आप हम धर्मपत्नियों के साथ रहकर भारी तपस्या कर सकते हैं। ‘आपकी यह तपस्या स्वर्गदायक महान् फल की प्राप्ति कराकर इस शरीर से भी मुक्ति दिलाने में समर्थ हो सकती है। इसमें संदेह नहीं कि उस तप के प्रभाव से आप ही स्वर्गलोक के स्वामी इन्द्र भी हो सकते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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