श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 32-45

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:१०, ६ अगस्त २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः (17)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद
महाराज परीक्षित के द्वारा कलियुग का दमन

तेरे राजाओ के शरीर में रहने से ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म-त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापों की बढ़ती हो रही है । अतः अधर्म के साथी! इस ब्रम्हावर्त में तू एक क्षण के लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्य का निवासस्थान है। इस क्षेत्र में यज्ञ विधि जानने वाले महात्मा यज्ञों के द्वारा यज्ञ पुरुष-भगवान की आराधना करते रहते हैं । इस देश में भगवान श्रीहरि यज्ञों के रूप में निवास करते हैं, यज्ञों के द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करने वालों का कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान वायु की भाँति समस्त चराचर जीवों के भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओं को पूर्ण करते रहते हैं । सूतजी कहते हैं—परीक्षित् की आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराज के समान मारने के लिये उद्दत, हाथ में तलवार लिये हुए परीक्षित् से वह बोला— कलि ने कहा—सार्वभौम! आपकी आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े है । धार्मिकशिरोमणे! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ । सूतजी कहते हैं—कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित् ने उसे चार स्थान दिये—द्दुत, मद्दपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं। उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित् ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण । परीक्षित् के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा । इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजा वर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये । राजा परीक्षित् ने इसके बाद वृषभ रूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वी का संवर्धन किया । वे ही महाराजा परीक्षित् इस समय अपने राजसिंहासन पर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिर ने वन में जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं । वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित इस समय हस्तिनापुर में कौरव-कुल की राज्यलक्ष्मी से शोभायमान हैं । अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित वास्तव में ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकाल में आप लोग इस दीर्घकालीन यज्ञ के लिये दीक्षित हुए हैं[१]


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 43 से 45 तक के श्लोकों में महाराज परीक्षित का वर्तमान के समान वर्णन किया गया है। ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (प्राo सूo 3। 3। 131) इस पाणिनि-सूत्र के अनुसार वर्तमान के निकटवर्ती भूत और भविष्य के लिये भी वर्तमान का प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज ने अपनी टीका में लिखा है कि यद्यपि परीक्षित की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमान के समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें भगवान् का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजी को वे अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हीं को, बल्कि सबको इस बात की प्रतीति हो रही है। ‘आत्मा वै जायते पुत्रः’ इस श्रुति के अनुसार जनमेजय के रूप में भी वही राजसिंहासन पर बैठे हुए हैं। इस सब करणों से वर्तमान के रूप में उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।

संबंधित लेख

-