महाभारत आदि पर्व अध्याय 119 श्लोक 33-37
एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘पहला पुत्र वह है, जो विवाहिता पत्नी से अपने द्वारा उत्पन्न किया गया हो; उसे ‘स्वयं-जात’ कहते हैं। दूसरा प्रणीत कहलाता है, जो अपनी ही पत्नी के गर्भ से किसी उत्तम पुरुष के अनुग्रह से उत्पन्न होता हैं तीसरा जो अपनी पुत्री का पुत्र हो, वह भी उसके समान माना गया है। चौथे प्रकार के पुत्र की पौनर्भव संज्ञा है, जो दूसरी बार ब्याही हुई स्त्री से उत्पन्न हुआ हो। पांचवें प्रकार के पुत्र की कानीन संज्ञाहै (विवाह से पहले ही जिस कन्या को इस शर्त के साथ दिया जाता है कि इसके गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र मेरा पुत्र समझा जायगा उस कन्या के पुत्र को ‘कानीन’ कहते हैं ) जो बहिन का पुत्र (भानजा) है, वह छठा कहा गया है। ‘अब छ: प्रकार के अबन्धुदायक पुत्र कहे गये हैं- दत्त (जिसे माता-पिता ने स्वयं समर्पित कर दिया हो), क्रीत (जिसे धन आदि देकर खरीद लिया गया हो), कृतिम- जो स्वयं मैं आपका पुत्र हूं, यों कहकर समीप आया हो, सहेढ़ (जो कन्यावस्था में ही गर्भवती होकर ब्याही गयी हो, उसके गर्भ उत्पन्न पुत्र सहोढ़ कहलाता है), ज्ञातिरेता (अपने कुल का पुत्र) तथा अपने से हीन जाति की स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र। ये सभी अबन्धुदायक हैं। ‘इनमें से पूर्व-पूर्व के अभाव में ही दूसरे-दूसरे पुत्र की अभिलाषा करें। आपत्तिकाल में नीची जाति के पुरुष श्रेष्ठ पुरुष से भी पुत्रोत्पत्ति की इच्छा कर सकते हैं। ‘पृथे !अपने वीर्य के बिना भी मनुष्य किसी श्रेष्ठ पुरुष के सम्बन्ध से श्रेष्ठ पुत्र का प्राप्त कर लेते हैं और वह धर्म का फल देने वाला होता है, यह बात स्वायम्भुव मनु ने कही है। ‘अत: यशस्विनी कुन्ती ! मैं स्वयं संतानोत्पादन की शक्ति से रहित होने के कारण तुम्हें आज दूसरे के पास भेजूंगा। तुम मरे सदृश अथवा मेरी अपेक्षा भी श्रेष्ठ पुरुष से संतान प्राप्त करो’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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