महाभारत आदि पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-20
विंशत्यधिकशततम (120) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
कुन्ती का पाण्डु को व्युषिताश्व के मृत शरीर से उसकी पतिव्रता पत्नी भद्रा के द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन
वैशम्पायनजी कहते है- महाराज जनमेजय ! इस प्रकार कहे जाने पर कुन्ती अपने पति कुरुश्रेष्ठ वीरवर राजा पाण्डु से इस प्रकार बोली-‘धर्मज्ञ ! आप मुझसे किसी तरह ऐसी बात न कहें; मैं आपकी धर्मपत्नी हूं और कमल के समान विशाल नेत्रों वाले आप में ही अनुराग रखती हूं। ‘महाबाहु वीर भारत ! आप ही मेरे गर्भ से धर्मपूर्वक अनेक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करेंगे। ‘नरश्रेष्ठ ! मैं अपके साथ ही स्वर्गलोक में चलूंगी। कुरुनन्दन ! पुत्र की उत्पत्ति के लिये आप ही मेरे पास समागम कीजिये। ‘मैं आपके सिवा किसी दूसरे पुरुष से समागम करने की बात मन में भी नहीं ला सकती। फिर इस पृथ्वी पर आपसे श्रेष्ठ दूसरा मनुष्य है भी कौन। ‘धर्मात्मन् ! पहले आप मेरे मुंह से यह पौराणिक कथा सुन लीजिये। विशालाक्ष ! यह जो कथा मैं कहने जा रही हूं, सर्वत्र विख्यात है। ‘कहते हैं, पूर्वकाल में एक परम धर्मात्मा राजा हो गये हैं। उनका नाम व्युषिताश्व। वे पूरुवंश की वृद्धि करने वाले थे। ‘एक समय वे महाबाहु धर्मात्मा नरेश जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्द्र सोमपान करके उन्मत्त हो उठे थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे। महामना राजर्षि व्युषिताश्व के यज्ञ में उस समय देवता और व्रह्मर्षि स्वयं सब कार्य कर रहे थे। राजन् ! इससे व्युषिताश्व सब मनुष्यों से ऊंची स्थिति में पहुंचकर बड़ी शोभा पा रहे थे। ‘राजा व्युषिताश्व समस्त भूतों के प्रीतिपात्र थे। राजाओं में श्रेष्ठ प्रतापी व्युषिताश्व ने अश्वमेध नामक महान् यज्ञ में पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण- चारों दिशाओं के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया- ठीक जिस प्रकार शिशिरकाल के अन्त में भगवान् सूर्यदेव सभी प्राणियों पर विजय कर लेते हैं- सबको तपाने लगते हैं। ‘उन महाराज में दस हाथियों का बल था। कुरुश्रेष्ठ ! पुरावेत्ता विद्वान् यश में बढ़े-चढ़े हुए नरेन्द्र व्युषिताश्व के विषय में यह यशोगाथा गाते हैं- ‘राजा व्युषिताश्व समुद्र पर्यन्त इस सारी पृथ्वी को जीतकर जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार सभी वर्ण के लोगों का पालन करते थे। उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करके ब्राह्मणों को बहुत धन दिया। ‘अनन्त रत्नों की भेंट लेकर उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये। अनेक सोमयागों का आयोजन करके उनमें बहुत-सा सोमरस संग्रह करके अग्निष्टोम-अत्यिगिन्ष्टोम आदि सात प्रकार की सोमयाग संस्थाओं का भी अनुष्ठान किया। ‘नरेन्द्र ! राजा कक्षीवान् की पुत्री भद्रा उनकी अत्यन्त प्यारी पत्नी थी। उन दिनों इस पृथ्वी पर उसके रुप की समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री न थी। ‘मैंने सुना है, वे दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को बहुत चाहते थे। पत्नी के प्रति अत्यन्त कामासक्त होने के कारण राजा व्युषिताश्व राजयक्ष्मा के शिकार हो गये। ‘इस कारण वे थोड़े ही समय में सूर्य की भांति अस्त हो गये। उन महाराज के परलोकवासी हो जाने पर उनकी पत्नी को बड़ा दु:ख हुआ। ‘नरव्याघ्र जनेश्वर ! हमने सुना है कि भद्रा के तब तक कोई पुत्र नहीं हुआ था। इस कारण वह अत्यन्त दु:ख से आतुर होकर विलाप करने लगी; वह विलाप सुनिये'।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख