महाभारत आदि पर्व अध्याय 121 श्लोक 1-15
एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
पाण्डु का कुन्ती को समझाना और कुन्ती का पति की आज्ञा से पुत्रोत्पत्ति के लिये धर्मदेवता का आवाहन करने के लिये उद्यत होना
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! कुन्ती के यों कहने पर धर्मज्ञ राजा पाण्डु ने देवी कुन्ती से पुन: यह धर्मयुक्त बात कही। पाण्डु बोले- कुन्ती ! तुम्हारा कहना ठीक है। पूर्वकाल में राजा व्युषिताश्व ने जैसा तुमने कहा है, वैसा ही किया था। कल्याणी ! वे देवताओं के समान तेजस्वी थे। अब मैं तुम्हें धर्म का तत्व बतलाता हूं, सुनो यह पुरातन धर्म तत्व धर्मज्ञ महात्मा ॠषियों ने प्रत्यक्ष किया है। साधु पुरुष इसी को प्राचीन धर्म कहते हैं। राजकन्ये ! पति अपनी पत्नी से जो बात कहे, वह धर्म के अनुकूल हो या प्रतिकूल, उसे अवश्य पूर्ण करना चाहिये- ऐसा वेदज्ञ पुरुषों का कथन है। विशेषत: ऐसा पति, जो पुत्र की अभिलाषा रखता हो और स्वयं संतानोत्पादन की शक्ति से रहित हो, जो बात कहे, वह अवश्य माननी चाहिये। निर्दोष अंगों वाली शुभलक्षणे ! मैं चूंकि पुत्र का मुंह देखने के लिये लालायित हूं, अतएव तुम्हारी प्रसन्नता के लिये मस्तक के समीप यह अञ्जलि धारण करता हूं, जो लाल-लाल अंगुलियों के युक्त तथा कमलदल के समान सुशोभित है। सुन्दर केशों वाली प्रिये ! तुम मेरे आदेश से तपस्या में बढ़े-चढ़े हएु किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण के साथ समागम करके गुणवान् पुत्र उत्पन्न करो। सुश्रोणि ! तुम्हारे प्रयत्न से मैं पुत्रवानों की गति प्राप्त करूं, ऐसी मेरी अभिलाषा है। वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! इस प्रकार कही जाने पर पति के प्रिय और हित में लगी रहने वाली सुन्दरांगी कुन्ती शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महाराज पाण्डु से इस प्रकार बोली- ‘भरतश्रेष्ठ ! क्षत्रियशिरोमणे ! स्त्रियों के लिये यह बड़े अधर्म की बात है कि पति ही उनसे प्रसन्न होने के लिये बार-बार अनुरोध करे; क्योंकि नारी का यह कर्तव्य है कि वह पति को प्रसन्न रखे। महाबाहो ! आप मेरी यह बात सुनिये।इससे आपको बड़ी प्रसन्नता होगी। ‘वाल्यावस्था में जब मैं पिता के घर थी, मुझे अतिथियों के सत्कार का काम सौंपा गया था। वहां कठोर व्रत का पालन करने वाले एक उग्रस्वभाव के ब्राह्मण की, जिनका धर्म के विषय में निश्चय दूसरों को अज्ञात है तथा जिन्हें लोग दुर्वासा कहते हैं, मैंने बड़ी सेवा-शुश्रूषा की। अपने मन को संयम में रखने वाले उन महात्मा को मैंने सब प्रकार के यत्नों द्वारा संतुष्ट किया। ‘तब भगवान् दुर्वासा ने वरदान के रुप में मुझे प्रयोग विधि सहित एक मन्त्र को उपदेश दिया और मुझसे इस प्रकार कहा-‘तुम इस मन्त्र से जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, वह निष्काम हो या सकाम, निश्चय ही तुम्हारे अधीन हो जायगा। ‘राजकुमारी ! उस देवाता के प्रसाद से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा’ भारत ! इस प्रकार मेरे पिता के घर में उस ब्राह्मण ने उस समय मुझसे यह बात कही थी। ‘उस ब्राह्मण की बात सत्य ही होगी। उसके उपयोग का यह अवसर आ गया है। महाराज ! आपकी आज्ञा होने पर मैं उस मन्त्र द्वारा किसी देवता का आवाहन कर सकती हूं। जिससे राजर्षे ! हम दोनों के लिये हितकर संतान प्राप्त हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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