श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 24-35
प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः (19)
विप्रवरों! आप लोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ। आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओं में और विशेष करके थोड़े ही समय में मरने वाले पुरुषों के लिये अन्तःकरण और शरीर से करने योग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है[१]। उसी समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए, किसी की कोई अपेक्षा न रखने वाले व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्य चिन्हों से रहित एवं आत्मानुभूति में सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियों ने उन्हें घेर रखा था। उनका वेष अवधूत का था । सोलह वर्ष की अवस्था थी। चरण, हाथ, जंघा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अंग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था । हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवली से युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे । श्याम रंग था। चित्त को चुराने वाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छटा और मधुर मुसकान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जानने वाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए । राजा परीक्षित ने अतिथि रूप से पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरुप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँ से लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए । ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रम्हार्षि, देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेवजी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे । जब प्रखर बुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्त भाव से बैठ गये, तब भगवान के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा । परीक्षित ने कहा—ब्रम्हस्वरुप भगवन्! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होने पर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथि रूप से पधार कर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया । आप-जैसे महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पाद प्रक्षालन और आसन-दानादि का सुअवसर मिलने पर तो कहना ही क्या है । महायोगिन्! जैसे भगवान विष्णु के सामने दैत्य लोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं । अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस जगह राजा ने ब्राम्हणों से दो प्रश्न किये हैं; पहला प्रश्न यह है कि जीव को सदा-सर्वदा क्या करना चाहिये और दूसरा यह कि जो थोड़े ही समय में मरने वाले हैं, उनका क्या कर्तव्य है ? ये ही दो प्रश्न उन्होंने श्रीशुकदेवजी से भी किये तथा क्रमशः इन्हीं दोनों प्रश्नों का उत्तर द्वितीय स्कन्ध से लेकर द्वादशपर्यन्त श्रीशुकदेवजी ने दिया है।
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