महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 240 श्लोक 1-15
चत्वाकरिंशदधिकद्विशततम (240) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
चत्वाकरिंशदधिकद्विशततम योग से परमात्माि की प्राप्ति का वर्णन व्यासस जी कहते हैं –सत्पुणत्र शुक ! तुम्हावरे प्रश्न् के अनुसार मैंने जो यहाँज्ञान के विषय का यथार्थ रूप से तात्विक वर्णन किया है, ये सब सांख्यषज्ञान से सम्बतन्ध् रखनेवाली बातें हैं । अब योगसम्बजन्धीक सम्पू्र्ण कृत्यों का वर्णन आरम्भ् करता हॅू, सुनो । तात ! इन्द्रिय, मन और बुद्धि की वृत्तियों को सब ओर से रोककर सर्वव्या!पी आत्मा् के साथ उनकी एकता स्थातपित करना ही योगशास्त्रियों के मत में सर्वोत्तम ज्ञान है । इसे प्राप्त करने के लिये साधक सब ओर से मन को हटाकर शम, दम, आदि साधनों से उत्पधन्नन हो आत्म तत्वै का चिन्तधन करे, एकमात्र परमात्मा में ही रमण करे, ज्ञानवान् पुरूष से ज्ञान ग्रहण करे एवं शास्त्रधविहित पवित्र कर्तव्यरकर्मों का निष्काेम भाव से अनुष्ठा्न करके ज्ञातव्य तत्व् को जाने । विद्वानों ने योग के जो काम, लोभ, भय और पाँचवॉ स्वतप्ने – ये पाँच दोष बताये हैं उनका पूर्णतया उच्छे द करे । इनमें से क्रोध को शम (मनोनिग्रह) के द्वारा जीते, काम को संकल्पं के त्यामगद्वारा पराजित करे तथा धीर पुरूष सत्व गुण का सेवन करने से निद्रा का उच्छेयद कर सकता है । मनुष्यग धैर्य का सहारा लेकर शिश्न और उदर की रक्षा करे अर्थात् विषयभोग और भोजन की चिन्ता् दूर कर दे । नेत्रों की सहायता से हाथ और पैरों की, मन के द्वारा नेत्र और कानों की तथा कर्म के द्वारा मन और वाणी की रक्षा करे अर्थात् इनको शुद्ध बनावे । सावधानी के द्वारा भय का और विद्वान पुरूषों के सेवन से दम्भा का त्यााग करे । इस प्रकार सदैव सावधानीपूर्वक आलस्यस छोड़कर इन योगसम्बऔन्धी। दोषों को जीतने का प्रयत्नय करना चाहिये एवं अग्नि और ब्राह्माणों की पूजा करनी चाहिये तथा देवताओं को प्रणाम करना चाहिये । साधक को चाहिये कि मन को पीड़ा देने वाली हिंसायुक्तअ वाणी का प्रयोग न करे । तेजोमय निर्मल ब्रह्मा सबका बीज (कारण) है । यह जो कुछ दिखायी दे रहा है, सब उसी का रस (कार्य) है । सम्पू र्ण चराचर जगत् उस ब्रह्मा के ही ईक्षण (संकल्पप) का परिणाम है । ध्या्न, वेदाध्यरयन, दान, सत्यप, लज्जा , सरलता, क्षमा, शौच, आचारशुद्धि एवं इन्द्रियों का निग्रह इनके द्वारा तेज की वृद्धि होती है और पापों का नाश हो जाता है । इतना ही नहीं, इनसे साधक के सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं तथा उसे विज्ञान की भी प्राप्ति होती है । योगी को चाहिये कि वह सम्पूिर्ण प्राणियों में समान भाव रखे । जो कुछ भी मिले या न मिले, उसी से संतोषपूर्वक निर्वाह करे । पापों को धो डाले तथा तेजस्वी्, मिताहारी मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर काम और क्रोध को वश में करके ब्रह्मापद को पाने की इच्छार करें । योगी मन और इन्द्रियों को एकाग्र करके रात के पहले और पिछले पहर में ध्या नस्थो होकर मन को आत्मा में लगावे । जैसे मशक में एक जगह भी छेद हो जाय तो वहॉ से पानी बह जाता है, उसी प्रकार पांच इन्द्रियों से युक्तज जीवात्मा। की एक इन्द्रिय भी यदि छिद्रयुक्तर हुई विषयों की ओर प्रवृत्ति हुई तो उसी से उसकी बुद्धि क्षीण हो जाती है
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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