महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 21-35

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अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद

निषादके वीर्य और मागधसैरन्‍ध्रीके गर्भसे मद्गुर जातिका पुरुष उत्‍पन्‍न होता है, जिसका दूसरा नाम दास भी है। वह नावसे अपनी जीविका चलाता है। चाण्‍डाल और मागधी सैरन्‍ध्रीके संयोगसे श्‍वपाक नामसे प्रसिध्‍द अधम चाण्‍डालकी उत्‍पति होती है। वह मुर्दोकी रखवालीका काम करता है। इस प्रकार मागध जातिकी सैरन्‍ध्री स्‍त्री आयोगव आदि चार जातियोंसे समागम करके मायासे जीविका चलानेवाले पूर्वोक्‍त चार प्रकारके क्रूर पुत्रोंको उत्‍पन्‍न करती है।इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके क्रुर पुत्रोंको उत्‍पन्‍न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके पुत्र मागधी सैरन्‍ध्री उत्‍पन्‍न होते है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके पुत्र मागधी सैरन्‍ध्रीसे उत्‍पन्‍न होते हैं जो उसके सजातीय अर्थात् मांस, स्‍वादुकर,क्षौद्र और सौगन्‍ध-इन चार नामोंसे प्रसिध्दि होती है।। आयोगव जातिकी पापिष्‍ठा स्‍त्री वैदेह जातिके पुरुषसे समागम करके अत्‍यन्‍त क्रुर, मायाजीवी पुत्र उत्‍पन्‍न करती है।वही निषादके संयोगसे मद्रनाभ नामक जातिको जन्‍म देती है, जो गदहेकी सवारी करनेवाली होती है। वही पापिष्‍ठा स्‍त्री जब चाण्‍डालसे समागम करती है तब पुल्‍कस जातिको जन्‍म देती है। पुल्‍कस गधे,घोड़े और हाथीके मांस खाते हैं।वे मुर्दोपर चढ़े हुए कफन लेकर पहनते और फुटे बर्तनमें भोजन करते हैं।। इस प्रकार ये तीन नीच जाति के मनुष्‍य आयोगवीकी संताने हैं। निषाद जातिकी स्‍त्रीका वैदेहक जातिके पुरुषसे संसर्ग हो तो क्षुद्र, अन्‍ध्र और कारावर नामक जातिवाले पुत्रोंकी उत्‍पति होती है। इनमेंसे क्षुद्र और अन्‍ध्र तो गॉंवसे बाहर रहते हैं और जंगली पशुओंकी हिसा करके जीविका चलाते है तथा कारावर मृत पशुओंके चमड़ेका कारोबार करता हैं।इसलिये चर्मकार या चमार कहलाता है। चाण्‍डाल पुरुष और निषादजातिकी स्‍त्रीके संयोगसे पाण्‍डुसौपाक जातिका जन्‍म है।यह जाति बॉसकी डलिया आदि बनाकर जीविका चलाती है।वैदेह जातिकी स्‍त्रीके साथ निषादका सम्‍पर्क होनेपर आहिण्‍डकका जन्‍म होता हैं, किंतु वही स्‍त्री जब चाण्‍डालके साथ सम्‍पर्क करती है तब उससे सौपाककी उत्‍पति होती है। सौपाककी जीविका-वृति चाण्‍डालके ही तुल्‍य है। निषाद जातिकी स्‍त्रीमें चाण्‍डालके वीर्यसे अन्‍तेवसायीका जन्‍म होता है।इस जातिके लोग सदा श्‍मशानमें ही रहते है।निषाद आदि बाह्यजातिके लोग भी उसे बहिष्‍कृत या अछूत समझते हैं। इस प्रकार माता-पिताके व्‍यतिक्रम (वर्णान्‍तरके संयोग)-से ये वर्णसंकर जातियॉं उत्‍पन्‍न होती हैं। इनमेंसे कुछकी जातियॉं तो प्रकट होती हैं और कुछकी गुप्‍त। इन्‍हें इनके कर्मोसे ही पहचानना चाहिये। शास्‍त्रोंमें चारों वर्णोंके धर्मोका निश्‍चय किया गयाहै औरोके नहीं। धर्महीन वर्णंसकर जातियोंमेसे किसीके वर्णसम्‍बन्‍धी भेद और उपभेदोंकी भी यहॉं कोई नियत संख्‍या नहीं है। जो जातिका विचार न करके स्‍वेच्‍छानुसार अन्‍य वर्णकी स्त्रियॉके साथ समागम करते हैं तथा जो यज्ञोंके अधिकार और साधु पुरुषोंसे बहिष्‍कृत हैं, ऐसे वर्णब्रह्य मनुष्‍योंसे ही वर्णसंकर संतानें उत्‍पन्‍न होती है और मनुष्‍योंसे ही अपनी रुचिके अनुकुल कार्य करके भिन्‍न–भिन्‍न प्रकारकी आजीविका तथा आश्रयको अपनाती है। ऐसे लोग सदा लोहे के आभूषण पहनकर चौराहों में, मरघट में, पहाडों पर और वृक्षों के नीचे निवास करते हैं। इन्‍हें चाहिये कि गहने तथा अन्‍य उपकरणों को बनायें तथा अपने उद्योग-धन्‍धों से जीविका चलाते हुए प्रकट रूप से निवास करें। पुरुषसिंह! यदि ये गौ और ब्राहामणों की सहायता करें, क्रूरतापूर्ण कर्म को त्‍याग दें, सब पर दया करें, सत्‍य बोलें, दूसरों के अपराध क्षमा करें और अपने शरीर को कष्‍ट में डालकर भी दूसरों की रक्षा करें तो इन वर्णसंकर मनुष्‍यों की भी पारमार्थिक उन्‍नति हो सकती है-इसमें संशय नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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