महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 55 श्लोक 19-37

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पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद

फिर मैं अन्तर्धान हुआ और पुनः तुम्हारे घर में आकर योग का आश्रय ले इक्कीस दिनों तक सोया।नरेश्‍वर। मैंने सोचा था कि तुम दोनों भूख से पीड़ित होकर या परिश्रम से थक कर मेरी निंदा करोगे। इसी उद्वेश्‍य से मैंने तुम लोगों को भूखे रखकर क्लेश पहुंचाया। भूपते। नरश्रेष्ठ। इतने पर भी स्त्री सहित तुम्हारे मन में तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। इससे मैं तुम लोगों पर बहुत संतुष्ट हुआ। इसके बाद जो मैंने भोजन मंगाकर जला दिया, उसमें भी यही उद्वेश्‍य छिपा था कि तुम डाह के कारण मुझ पर क्रोध करोगे; परंतु मेरे उस बर्ताव को भी तुमने सह लिया। नरेन्द्र। इसके बाद में रथ पर आरूढ़ होकर बोला, तुम स्त्री सहित आकर मेरा रथ खींचो। नरेश्‍वर। इस कार्य को भी तुमन निःशंक होकर पूर्ण किया। इससे भी मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हुआ। फिर जब मैं तुम्हारा धन लुटाने लगा उस समय भी तुम क्रोध के वशीभूत नहीं हुए। इन सब वातों से मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन। मनुजेश्‍वर। अतः मैंने पत्‍नी सहित तुम्हें संतुष्ट करने के लिये ही इस वन में स्वर्ग का दर्शन कराया है। पुनः यह सब कार्य करने का उद्वेश्‍य तुम्हें प्रसन्न करना ही था, इस बात को अच्छी तरह जान लो।नरेश्‍वर।राजन। इस वन में तुमने जो दिव्य दृश्‍य देखे हैं वह स्वर्ग की एक झांकी थी। नृपश्रेष्ठ। भूपाल। तुमने अपनी रानी के साथ इसी शरीर से कुछ देर तक स्वर्गीय सुख का अनुभव किया है। नरेश्‍वर। यह सब मैंने तुम्हें तप और धर्म का प्रभाव दिखलाने के लिये ही किया है। राजन। इन सब बातों को देखने पर तुम्हारे मन में जो इच्छा हुई है, वह भी मुझे ज्ञात हो चुकी है । पृथ्वीनाथ। तुम सम्राट और देवराज के पद की भी अवहेलना करके ब्राह्माणत्व पाना चाहते हो और तप की अभिलाषा रखते हो। तात्। तप और ब्राह्माणत्व के सम्बन्ध में तुम जैसा उद्गार प्रकट कर रहे थे, वह बिलकुल ठीक है। वास्तव में ब्राह्माणत्व दुर्लभ है। ब्राह्माण होने पर भी ऋषि होना और ऋषि होने पर भी तपस्वी होना तो और भी कठिन है। तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण होगी। कुशिक से कौषिक नामक ब्राह्माण वंश प्रचलित होगा तथा तुम्हारी तीसरी पीढ़ी ब्राह्माण हो जायेगी। नृपश्रेष्ठ। भृगुवंशियों के तेज से ही तुम्हारा वंश ब्राह्माणत्व को प्राप्त होगा। तुम्हारा पौत्र अग्नि के समान तेजस्वी और तपस्वी ब्राह्माण होगा। तुम्हारा वह पौत्र अपने तप से प्रभाव से देवताओं, मनुष्यों तथा तीनों लोकों के लिये भय उत्पन्न कर देगा। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूं। राजर्षे। तुम्हारे मन में जो इच्छा हो उसे वर के रूप में मांग लो। मैं तीर्थ यात्रा को जाऊंगा अब देर हो रही है। कुशिक ने कहा- महामुने। आज आप प्रसन्न हैं, यही मेरे लिये बहुत वड़ा वर है। अनघ। आप जैसा कह रहे हैं, वह सत्य हो- मेरा पौत्र ब्राह्माण हो जाये। भगवन। मेरा कुल ब्राह्माण हो जाये, यही मेरा अभीष्ट वर है। प्रभो। मैं इस विषय को पुनः विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं। भृगुनन्दन। मेरा कुल किस प्रकार ब्राह्माणत्व को प्राप्त होगा? मेरा वह बन्धु, वह सम्मानित पौत्र कौन होगा जो सर्वप्रथम ब्राह्माण होने वाला है?

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें च्‍यवन और कुशिका का संवादविषयक पचपनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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