महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 116 श्लोक 1-18

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षोडशाधिकशततम (116) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षोडशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

मांस न खाने से लाभ और अहिंसाधमै की प्रशंसा

युधिष्ठिर कहते हैं - पितामह ! बड़े खेद की बात है कि ससार के से निर्दयी मनुष्य अच्दे-अचदे खाद्य पदार्थों का परित्याग करके महान् राक्षसों के समान मांस का स्वाद लेना चाहते हैं। भाँति-भाँति के मालपूओं, नाना प्रकार के शाकों तथा रसीली मिठाइयों की भी वैसी इच्छा नहीं रखते, जैसी रुचि मांस के लिये रखते है। प्रभो ! पुरुषप्रवर ! अतः मैं मांस न खाने से होने वाले लाभ और उसे खाने से होने वाली हानियों को पुनः सुनना चाहता हूँ। धर्मज्ञ पितामह ! इस समय धर्म के अनुसार यथावत् रूप से यहाँ सब बातें ठीक-ठीक बताइये। इसके सिवा यह भी कहिये कि भोजन करने योग्य क्या वस्तु है और भोजन न करने योग्य क्या वस्तु है। पितामह ! मांस का जो स्वरूप है, यह जैसा है, इसका त्याग कर देने में जो लाभ है और इसे खाने वाले पुरुष को जो दोष प्राप्त होते हैं - ये सब बातें मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा - महाबाहो ! भरतनन्दन ! तुम जैसा कहते हो ठीक वैसी ही बात है। कौरवनन्दन ! मांस न खाने में बहुत से लाभ है, जो वैसे मनुष्यों को सुलभ होते हैं; मैं बता रहा हूँ; सुनो। जो दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढत्रकर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है। तगज् में अपने प्राणों से अधिक पिंय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इसलिये मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे। तात ! मांस भक्षण करने में महान् दोष् है; क्योंकि मांस की उत्पत्ति वीर्य से होती है, इसमें संशय नहीं है। अतः उससे निवृत्त होने में ही पुण्य बताया गया है। कौरवनन्दन ! इस लोक और परलोक में इसके समान दूसरा कोई पुण्यकार्य नहीं है कि इस जगत् में समसत प्राणियों पर दया की जाय। इस जगत् में दयालु मनुष्य को कभी भय का सामना नहीं करना पड़ता। दयालु और तपस्वी पुरुषों के लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद होते हैं। धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि अहिंसा ही धर्म का लक्षण है। मनस्वी पुरुष वही कर्म करे, जो अहिंसात्मक हो। जो दयापरायण पुरुष सम्पूर्ण भूतों को अभयदान देता है, उसे भी सब प्राणी अभयदान देते हैं। ऐसा हमने सुन रखा है। वह घायल हो, लड़खड़ाता हो, गिर पड़ा हो, पानी के बहाव में खिंचकर बहा जाता हो, आहत हो अथवा किसी भी सम-विषम अवस्था में पड़ा हो, सब प्राणी उसकी रक्षा करते हैं। जो दूसरों को भय से छुड़ाता है, उसे न हिंसक पशु मारते हैं और न पिशाच तथा राक्षस ही उस पर प्रहार करते हैं। वह भय का अवसर आने पर उससे मुक्त हो जाता है। प्राणदान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। अपने आत्मा से बढ़कर प्रियतर वस्तु दूसरी कोई नहीं है। यह निश्चित बात है। भरतनन्दन ! किसी भी प्राणी को मृत्यु अभीष्ट नहीं है; क्योंकि मृत्युकाल में सभी प्राणियों का शरीर तुरंत काँप उठता है। इस संसार-समुद्र में समस्त प्राणी सदा गर्भवास, जन्म और बुढ़ापा आदि के दुःखों से दुःखी होकर चारों और भटकते रहते हैं। साथ ही मृत्यु के भय से उद्विग्न रहा करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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