महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-15

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अष्टादशाधिकशततम (118) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

कीड़े का क्रमशः क्षत्रिय योनि में जन्म लेकर व्यासजी का दर्शन करना और व्यासजी का उसे ब्राह्मण होने तथा स्वर्गसुख और अक्षय सुख की प्राप्ति होने का वरदान देना

व्यासजी ने कहा- कीट ! तुम जिस शुभ कर्म के प्रभाव से तिर्यग् योनि में जनम लेकर भी मोहित नहीं हुए हो, वह मेरा ही कर्म है। मेरे दर्शन के प्रभाव से ही तुम्हें मोह नहीं हो रहा है। मैं अपने तपोबल से केवल दर्शनमात्र देकर तुम्हारा उद्धार कर दूँगा; क्योंकि तपोबल से बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठ बल नहीं है। कीट ! मैं जानता हूँ, अपने पूर्वकृत पापो के कारण तुम्हें कीट योनि में आना पड़ा है। यदि इस समय तुम्हारी धर्म के प्रति श्रद्धा है तो तुम्हें धर्म अवश्य प्रापत होगा। देवता, मनुष्य और तिर्यग् योनि में पड़े हुए प्राणी कर्मभूमि में किये हुए कर्मों का ही फल भेगते हैं। अज्ञानी मनुष्य का धर्म कामना को लेकर ही होता है तथा वे कामना सिद्धि के लिये ही गुणों को अपनाते हैं। मनुष्य मूर्ख हो या विद्वान्, यदि वह वाणी, बुद्धि और हाथ-पैर रहित होकर जीवित है तो उसे कौन सी वस्तु त्यागेगी, वह तो सभी पुरुषार्थों से स्वयं ही परित्यक्त है। कीट ! एक जगह ऐ रेष्ठ ब्राह्मण रहते हैं। वे जीवन में सदा सूर्य और चन्द्रमा की पूजा किया करते हैं तथा लोगों को पवित्र कथाएँ सुनाया करते हैं। उन्हीं के यहाँ तुम ( क्रमशः ) पुत्र रूप में जन्म लोगे। वहाँ विषयों को पंचभूतों का विकार मानकर अनासक्त भाव से उपभोग करोगे। उस समय मैं तुम्हारे पास आकर ब्रह्मकवद्वा का उपदेश करूँगा तथा तुम जिस लोक में जाना चाहोगे, वहीं तुम्हें पहुँचा दूँगा। व्यासजी के इस प्रकार कहने पर उस कीड़े ने बहुत अच्छा कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली और बीच रास्ते में जाकर वह ठहर गया। इतने ही में वह विशाल छकड़ा अकस्मात् वहाँ आ पहुँचा और उसके पहिये से बदकर चूर-चूर हो कीड़े ने प्राण त्याग दिये। तत्पश्चात् वह क्रमशः शाही, गोधा, सूअर, मृग, पक्षी, चाण्डाल, शूद्र और वैश्य की योनि में जन्म लेता हुआ क्षत्रिय-जाति में उत्पन्न हुआ। अन्य सारी योनियों में भ्रमण करने के बाद अमित तेजस्वी व्यासजी की कृपा से क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर वह उन महर्षि का दर्शन करने के लिये उनके पास गया। वह कीट योनि में उन सत्यवादी महर्षि वेदव्यासजी के साथ बातचीत करके जो इस प्रकार उन्नतिशील हुआ था, उसकी याद करके उस क्षत्रिय ने हाथ जोड़कर ऋषि के चरणों में अपना मसतक रख दिया। कीट ( क्षत्रिय ) ने कहा- भगवन् ! आज मुझे वह स्थान मिला है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इसे मैं दस जन्मों से पाना चाहता थौ यह आप ही की कृपा है कि मैं अपने दोष से कीड़ा होकर भी आज रोजकुमार हो गया हूँ। अब सोने की मालाओं से सुशोभित अत्यन्त बलवान् गजराज मेरी सवारी में रहते हैं। उत्तम जाति के काबुली घोड़े मेरे रथों में जोते जाते हैं। ऊँटों और खच्चरों से जुती हुई गाडि़याँ मुझे ढोती हैं। मैं भाई-बन्धुओं और मन्त्रियों के साथ मांस-भात खाता हूँ। महाभाग ! श्रेष्ठ पुरुषों में रहने योग्य अपने निवासभूत सुन्दर महलों के भीतर सुखद शय्शओं पर मैं बड़े सम्मान के साथ शयन करता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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