महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-13

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सप्ततितम (70 अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्माण के धन का अपहरण करने से होने वाली हानि के विषय में दृष्‍टान्‍त के रुप में राजा नृग का उपाख्‍यान

भीष्मजी कहते हैं- करूश्रेष्ठ। इस विषय में श्रेष्ठ पुरूष वह प्रसंग सुनाया करते हैं, जिसके अनुसार एक ब्राह्माण के धन को लेने के कारण राजा नृग को महान कष्ट उठाना पड़ा था। पार्थ।हमारे सुनने में आया है कि पूर्व काल में जब द्वारिकापुरी बस रही थी, उसी समय वहां घास और लताओं से ढका हुआ एक विशाल कूप दिखाई दिया। वहां रहने वाले यदुवंशी बालक उस कुऐं का जल पीने की इच्छा से बड़े परिश्रम के साथ उस घास-फूस को हटाने के लिये महान प्रयत्न करने लगे। इतने में ही उस कुऐ के ढके हुए जल में स्थित हुए एक विशालकाय गिरगिट पर उनकी दृष्टि पड़ी । फिर तो वे सहस्त्रों बालक उस गिरगिट को निकालने का यत्न करने लगे। गिरगिट का शरीर एक पर्वत के समान था। बालकों ने उसे रस्सियों और चमड़े की पट्टियों से बांधकर खींचने के लिये बहुत जोर लगाया परंतु वह टस-से-मस न हुआ। जब बालक उसे निकालने में सफल न हो सके, तब वे भगवान श्री कृष्ण के पास गये।उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से निवदेन किया- भगवन। एक बहुत बड़ा गिरगिट कुऐं में पड़ा है, जो कुऐं के सहारे आकाश को घेर कर वैठा है; पर उसको निकालने वाला कोई नहीं है। यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण उस कुऐं के पास गये उन्होंने उस गिरगिट को कुऐं से बाहर निकाला और अपने पावन हाथ के स्पर्श से राजा नृग का उद्वार कर दिया। इसके बाद उनसे परिचय पूछा। तब राजा ने उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा- प्रभो। पूर्व जन्म में मैं राजा नृग था, जिसने एक सहस्त्र यज्ञों का अनुष्ठान किया था।उनकी ऐसी बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा- राजन। आपने तो सदा पुण्य कर्म ही किया था- पाप कर्म कभी नहीं किया, फिर आप ऐसी दुगर्ति में कैसे पड़ गये? बताईये क्यों आपको ऐसा कष्ट प्राप्त हुआ।नरेश्‍वर। हमने सुना है कि पूर्वकाल में आपने ब्राह्माणों को पहले एक लाख गौऐं दान की। दूसरी बार सौ गौओं का दान किया। तीसरी बार पुनः सौ गौऐं दान में दी। चैथी बार आपने गौदान का ऐसा सिलसिला चलाया कि लगातार अस्सी लाख गौओं का दान कर दिया (इस प्रकार आपके द्वारा इक्यासी लाख दौ सौ गौऐं दान में दी गयी) आपके उन सब दानों का पुण्य फल कहां चला गया? तब राजा नृग ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- प्रभो। एक अग्निहोत्री ब्राह्माण परदेश चला गया था। उसके पास एक गाय थी, जो एक दिन अपने स्थान से भागकर मेरे गौओं के झुण्ड में आ मिली। ‘उस समय मेरे ग्वालों ने दान के लिये मंगायी गई एक हजार गौओं में उसकी भी गिनती कर दी और मैंने परलोक में मनाबांछित फल की इच्छा से वह गौ भी एक ब्राह्माण को दे दी। ‘कुछ दिनों बाद जब वह ब्राह्माण जब परदेश से लौटा, तब अपनी गाय ढ़ढने लगा, ढूढते-ढूढते जब वह गाय उसे दूसरे के घर मिली तब उस ब्राह्माण ने, जिसकी वह गौ पहले थी, उस दूसरे ब्राह्माण से कहा- यह गाय तो मेरी है। ‘फिर तो वे दोनों आपस में लड़ पड़े और अत्यन्त क्रोध में भरे मेरे पास आये। उनमें से एक ने कहा- महाराज। यह गौ मुझे आपने दान में दी है (और यह ब्राह्माण इसे अपनी बता रहा है)। दूसरे ने कहा- महाराज। वास्तव में यह मेरी गाय है। आपने उसे चुरा लिया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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