महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 70 श्लोक 14-33

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सप्ततितम (70 अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 14-33 का हिन्दी अनुवाद

तब मैंने दान लेने वाले ब्राह्माण से प्रार्थना पूर्वक कहा- मैं इस गाय के बदले आपको दस हजार गौऐं देता हूं (आप इन्हें इनकी गाय वापस दे दीजिये)। यह सुनकर वह यों बोला महाराज। यह गौ देशकाल के अनुरूप, पूरा दूध देने वाली, सीधी-साधी और अत्यन्त दयालु स्वभाव की है। यह बहुत मीठा दूध देने वाली है। धन्य भाग्य जो यह मेरे घर आयी। यह सदा मेरे ही यहां रहे।‘अपने दूध से यह गौ मेरे मातृहीन शिशु का प्रतिदिन पालन करती है; अतः मैं इसे कदापि नहीं दे सकता।’ यह कहकर वह उस गाय को लेकर चला गया। ‘तब मैंने उस दूसरे ब्राह्माण से याचना की- भगवन। उसके बदले में आप मुझझे एक लाख गौऐं ले लीजिये। ‘मधुसूदन। तब उस ब्राह्माण ने कहा- मैं राजाओं का दान नहीं लेता। मैं अपने लिये धन का उपार्जन करने में समर्थ हूं मुझे तो शीघ्र मेरी वही गौ ला दीजिये । मैंने उसे सोना, चांदी, रथ और घोड़े- सब कुछ देना चाहा परंतु वह उत्तम ब्राह्माण कुछ न लेकर तत्काल चुपचाप चला गया। ‘इसी बीच में काल की प्रेरणा से मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ और पितृलोक में पहुंच कर धर्मराज से मिला। ‘यमराज ने मेरा आदर-सत्कार करके मुझसे यह बात कही- राजन। तुम्हारे पुण्य कर्मों की तो गिनती ही नहीं है। परंतु अनजान में तुमसे एक पाप भी बन गया है। उस पाप को तुम पीछे भोगो या पहले ही भोग लो, जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो। आपने प्रजा के धन-जन की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा की थी; किंतु उस ब्राह्माण की गाय खो जाने के कारण आपकी वह प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। दूसरी बात यह है कि आपने ब्राह्माण के धन का भूल से अपहरण कर लिया था। इस तरह आपके द्वारा दो तरह का अपराध हो गया है। ‘तब मैंने धर्मराज से कहा- प्रभो। मैं पहले पाप ही भोग लूंगा। उसके बाद पुण्य का उपभोग करूंगा। इतना कहना था कि मैं पृथ्वी पर गिरा । ‘गिरते समय उच्च स्वर से बोलते हुए यमराज की यह बात मेरे कानों में पड़ी- ‘महाराज। एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण होने पर तुम्हारे पाप कर्म का भोग समाप्त होगा। उस समय जनार्दन भगवान श्रीकृष्ण आकर तुम्हारा उद्वार करेंगे और तुम अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से प्राप्त हुए सनातन लोकों में जाओगे’।‘कुऐं में गिरने पर मैंने देखा, मुझे तिर्यग्योनि (गिरगिट की देह) मिली है और मेरा सिर नीचे की ओर है। इस योनि में भी मेरी पूर्वजन्मों की स्मरणशक्ति ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है । ‘श्रीकृष्ण। आज आपने मेरा उद्वार कर दिया। इसमें आपके तपोबल के सिवा और क्या कारण हो सकता है। अब मुझे आज्ञा दीजिये, मैं स्वर्गलोक को जाऊंगा’। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आज्ञा दे दी और वे शत्रुदमन नरेश उन्हें प्रणाम करके दिव्य मार्ग का आश्रय ले स्वर्गलोक को चले गये। भरतश्रेष्ठ। कुरूनन्दन। राजा नृग नके स्वर्गलोक को चले जाने पर वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक का गान किया- ‘समझदार मनुष्य को ब्राह्माण के धन का अपहरण नहीं करना चाहिये। चुराया हुआ ब्राह्माण का धन चोर का उसी प्रकार नाश कर देता है, जैसे ब्राह्माण की गौ ने राजा नृग का सर्वनाश किया था। कुन्तीनन्दन। यदि सज्जन पुरूष सत्पुरूषों का संग करें तो उनका वह संग व्यर्थ नहीं जाता। देखा, श्रेष्ठ पुरूष के समागम के कारण राजा नृग का नरक से उद्वार हो गया।।युधिष्ठिर । गौओं का दान करने से जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओं से द्रोह करने पर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है; इसलिये गौओं को कभी कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें नृगका उपाख्यानविषयक सत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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