महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 68-82
नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सत्य से ही आग जलती है तथा सत्यपर ही स्वर्गलोक प्रतिष्ठित हैं । यज्ञ, तप, वेद,स्तोभ, मन्त्र और सरस्वती सब सत्यके ही स्वरूप हैं। मैंने सुना है कि किसी समय धर्म और सत्य को तराजू पर, जिसके दोनो पलड़े बराबर थे, रखा और तौला गया; उस समय जिस और सत्य था, उधर का ही पलड़ा भारी हुआ। जहॉ धर्म है वहॉ सत्य है । सत्य से ही सबकी वृद्धि होती है । राजन् ! आप क्यों असत्यपूर्ण बर्ताव करना चाहते हैं ? । महाराज ! आप सत्य में ही मन को स्थिर कीजिये । मिथ्यापूर्ण बर्ताव न कीजिये । यदि लेना ही नहीं था तो आपने ’दीजिये’ यह झूठा और अशुभ वचन क्यों मॅुह से निकाला था। नरेश्वर ! यदि आप मेरे दिये हुए इस जप के फल को नहीं स्वीकार करेंगे तो धर्मभ्रष्ट होकर सम्पूर्ण लोकों में भटकते फिरेंगे। जो पहले देने की प्रतिज्ञा करके फिर देना नहीं चाहता तथा जो याचना तो करता है, किंतु मिलनेपर उसे लेना नहीं चाहता, वे दोनों ही मिथ्यावादी होते है; अत: आप अपनी और मेरी भी बात मिथ्या न कीजिये । राजा ने कहा –ब्राह्रान् ! क्षत्रिय का धर्म तो प्रजा की रक्षा और युद्ध करना है । क्षत्रियों को दाता कहा गया है; फिर मैं उलटे ही आपसे दान कैसे ले सकता हॅू ? ब्राह्राण ने कहा – राजन् ! दान लेने के लिये मैने आपसे अनुरोध या आग्रह नहीं किया था और न मैं देने के लिये आपके घर ही गया था । आपने स्वयं यहॉ आकर याचना की है; फिर लेने से कैसे इनकार करते है ? धर्म बोले – आप दोनों में विवाद न हो । आपको विदित होना चाहिये कि मैं साक्षात् धर्म यहॉ आया हॅू । ब्राह्राण देवता दान के फल से युक्त हो जायॅ और राजा भी सत्य के फल से सम्पन्न हों। स्वर्ग बोला – राजेन्द्र ! आपको विदित हो कि मैं स्वर्ग हॅू और स्वयं ही शरीर धारण करके यहॉ आया हॅू । आप दोनों में विवाद न हो । आप दोनों समान फल के भागी हों। राजा ने कहा – मुझे स्वर्ग की कोई आवश्यकता नहीं है । स्वर्ग ! तुम जैसे आये थे, वैसे ही लौट जाओ । यदि ये ब्राह्राण देवता स्वर्ग में जाना चाहते हों तो मेरे किये हुए पुण्यफल को ग्रहण करें। ब्राह्राण ने कहा – यदि बाल्यावस्था में अज्ञानवश मैंने कभी किसी के सामने हाथ फैलाया हो तो उसका मुझे स्मरण नहीं है; परंतु अब तो संहिता – गायत्री मन्त्र का जप करता हुआ निवृत्तिधर्म की उपासना करता हॅू । राजन् ! मैं निवृत्तिमार्ग का पथिक हॅू, आप बहुत देर से मुझे लुभाने का प्रयत्न क्यों करते हैं ? नरेश्वर ! मैं स्वयं ही अपना कर्तव्य करूँगा, आपसे कोई फल नहीं लेना चाहता । मैं प्रतिग्रह से निवृत्त होकर तप और स्वाध्याय में लगा हुआ हॅू। राजा ने कहा – विप्रवर ! यदि आपने अपने जप को उत्तम फल दे ही दिया है तो ऐसा कीजिये कि हम दोनों के जो भी पुण्यफल हों, उन्हें एकत्र करके हम दोनों साथ ही भोगें – हम दोनों का उन पर समान अधिकार रहे। ब्राह्राणों को दान लेने का अधिकार है और क्षत्रिय केवल दान देते हैं, लेते नहीं; यह धर्म आपने भी सुना होगा; अत: विप्रवर ! हम दोनों के कार्य का फल साथ ही हम दोनों के उपयोग में आवे।
« पीछे | आगे » |